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प्राकृत-दीपिका
[ महाराष्ट्री
(7) जयवल्लभकृत वज्जालग्ग ( अपभ्रंसकाव्यत्रयी की प्रस्तावना पृष्ट ७६ में
उद्धत ) से१०. उज्झउ सक्कयक व्वं सक्कयकव्वं च निम्मियं जेण ।
वंसहरं व पलित्तं तडयडतट्टत्तणं कुणइ ।। (ब) वाक्पतिराजकृत गउरवही से११. णवमत्थदंसणं संनिवेस-सिसिराओं बंधरिद्धीओ।
अविरलमिणमो आभुवणबंधमिह णवर पययम्मि ॥ ९२॥ १२. सयलाओं इमं वाआ विसंति एत्तो य णेति वायाओ।
एंति समुह चिय णेति सायराओ च्चिय जलाइं ॥ ९३ ॥ १०. उज्झ्यतां संस्कृतकाव्यं संस्कृतकाव्यं च निर्मितं येन ।
वंश गृहमिव प्रदीप्तं तडतडतट्टत्वं करोति ।। ११. नवामार्थदर्शनं संनिवेशशिशिरा बन्धयः ।
अविरलमिदमाभुवनबन्धमिह केवलं प्राकृते ।। १२. सकला एतत् वाचो विशन्ति इतश्च विनिर्गच्छन्ति वाच।
आगच्छन्ति समुद्रमेव निर्यान्ति सागरादेव जलानि ॥
१०. संस्कृत-काव्य को तथा जिसने संस्कृत-काव्य बनाया है उनको छोड़ो ( उनका नाम मत लो) क्योंकि वह (संस्कृत भाषा ) जलते हुए बाँस के घर की तरह 'तड़ तड़ तट्ट' शब्द को करती है, अर्थात् श्रुतिकटु है।
११. नवीन-नवीन अथ-सम्पत्ति का दर्शन तथा सुन्दर रचना से युक्त प्रबन्ध-सम्पत्ति प्रचुर परिमाण में सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आजतक केवल प्राकृत में है।
१२. [ संस्कृत अपभ्रंश आदि ] सभी भाषायें इस प्राकृत में लीन हो जाती हैं । इस प्राकृत से ही वे सभी भाषायें निकली हैं। जैसे जल समुद्र में प्रवेश करता है और समुद्र से ही निकलता है। अर्थात् प्राकृत भाषा सभी भाषाओं की जननी है, वह शब्द ब्रह्म है तथा संस्कृत आदि भाषायें उसके विकार या विवर्त हैं।
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