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प्राकृत-दीपिका
[चतुर्दश अध्याय
की भाषा ) भी मागधी का रूपान्तर है। मार्कण्डेय ने संभवत: इसे ही टाक्की नाम दिया है। प्रमुख विशेषतायें -
(१) स प श>श--पुरुषः > पुलिशे, हंसः >हंशे, सुतम् > शुदं, सारसः शालशे, शोभनम् >शोभणं, शत्रुः >शत्तू ।
[ अपवाद-यदि 'स' और 'ष' का प्रयोग संयुक्त वर्ण के साथ हो तो वहाँ ( 'ग्रीष्म' शब्द को छोड़कर ), 'स' भी देखा जाता है। जैसे-बृहस्पतिः > चुहस्पदी, कष्टम् > कस्टं, निष्फलम् >निस्फलं, धनुष्खण्डम् >धनुस्खण्डं, विष्णुम् > विस्नु। ग्रीष्मवासरः >गिम्हवाशले । ]
(२) अकारान्त पु० शब्दों के प्रथमा एकवचन में 'ए' होता है, 'ओ' नहीं। जैसे—एष मेषः >एशे मेशे ( यह भेड़ ), एषः पुरुषः एशे पुलिशे । अन्यत्र--निधिः >णिही, गिरिः >गिली ( पहाड़ ), करि: > कली ( हाथी ), जलम् >जलं।
(३) र >ल--नर:>णले, पुरुषः >पुलिशे, राजा >लाआ, कर: > कले ( हाथ ), सारस: > शालशे, भट्ठारिका>भस्टालिका।
(४) ज, ज, ध, य>य-मागधी में 'य' का 'ज' में परिवर्तन नहीं है अपितु 'ज' ही 'य' में बदल जाता है (र्ज और द्य के रहने पर व्य)। जैसे-जानाति > याणदि, जनपद: >यणवदे, गर्जति > गय्यदि, दुर्जनः >दुय्यणे, अर्जुनः >अय्युणे, याति >यादि, यतिः > यदि, मद्यम् >मय्यं, अद्य >अय्य ।
(५) न्य, ण्य, ज्ञ, अ>ञ-अभिमन्युकुमार: >अहिमञ्जुकुमाले, सामा, भ्यगुण:>शामञगुणे, कन्यका) कञका, अब्रह्मण्यम् >अबम्हनं, पुण्यवन्तः
>पुञ्जवंते, पुण्यम् >पुलं, अवज्ञा>अवज्ञा, प्रज्ञा पञा, सर्वज्ञः> शव्वळे, धनञ्जय:>धणञ्जए, अञ्जलि:>अझली।
(६) स्थ, थं>स्त-उपस्थितः >उवस्तिदे, अर्थपतिः >अस्तबदी, सार्थवाहः >शस्तवाहे, सुस्थितः > शुस्तिदे। १. देखें, हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, चतुर्थपाद, सूत्र २८७ से ३०२.
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