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प्राकृत-दीपिका
[ चतुर्दश अध्याय . (३) मध्यवर्ती संयुक्त व्यंजनों में से एक का लोप होने पर प्रायः पूर्ववर्ती हस्त्र स्वर को दीर्घ हो जाता है। जैसे-कस्य >कासु, सत्यम् > सावउ, तस्थ >तासु। : (४) मध्यवर्ती व्यञ्जन के लोप होने पर यदि दो समान स्वर पास-पास में हों तो दं.घंसन्धि हो जाती है। जैसे--पितृगृह >पिइहर >पीहर, भाण्डागार > भंडाआर>भंडार, लोहकार >लोहार > लोहार, प्रियतर > पिअअर>पिआर ।
(५) 'व'श्रुति-सहोदर > सहोवर, उदर > उवर, युगल > जुबल, स्तोक >थोव, मन्दोदरीमंदोवरी।
(६) संयुक्त व्यंजनों में रेफ की यथावत् स्थिति के साथ रेफ का आगमन भी प्रायः होने लगा। जैसे--प्रिय.>प्रिय पिय, व्यास वास वास, व्याकरण> वागरण बागरण ।
(७) स्वार्थिक 'उ' और 'ल' प्रत्ययों का प्रयोग । जैसे---वृक्षः वृक्षकः> रुक्खडु, नग्न > नग्गल, पत्र>पत्तल, देश: > देसडा ।
(८) अनुरणनात्मक शब्दों का बाहल्य-- टणटणटणंत, जिगिजिगिजिगन्त । (९) विभक्तियों का ह्रास । अकारान्त शब्दों के प्रमुख विभक्ति-प्रत्यय तथा देव शब्द के रूप निम्न हैंप्रत्यय-चित्र
'देव' शब्द के रूप एकवचन बहुवचन एकवचन
बहुवचन प्र० उ, ओ, लोप लोप देव, देवो, देव
देव, देवा द्वि० उ, लोप
देव देव
देव, देवा तृ० ए, एं, ण हिं (अ>ए विकल्प से) देवे, देवें, देवेण च० सु, स्सु, हो, हं, लोप देव, देवसु, देवस्सु, देवहं, देव लोप
देवहो पं० हु, हे
देवहु, देवहे देवहुँ
लोप
Phon
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