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आज्ञा एवं विध्यर्थक वाक्य ]
भाग २ : अनुवाद
[ १५१
(व्रत) पाल । कि अहं वागरणं पढामु उअ (अथवः) आगमं पढामु । मम पत्थणा ( प्रार्थना) अस्थि, तुमं आगमं पढहि । सा घडं कुणउ | पण्डियो तुमं वयं रक्खहि । सावज्जं वज्जउ मुणी । वसानुं गुरुकुले णिच्चं । गोयम ! समयं मा पमायउ । संनिहिं ण कुणउ माहणो । ण कोवह आयरियं । सव्वं कलहं विप्पजय भिक्खू । सव्वे भद्दाई पासन्तु । सब्वे सुहिणो होंतु । तुमं इमाणं दरिद्दाणं रूप्प आणि देहि । इदं कज्जं सिग्धं करेहि तुमं । सा बालिआ उच्छुरसं पाउ ।
पाठ ८ विध्यर्थक वाक्य
उदाहरण वाक्य [ तव्व, अणिज्ज और अणीअ प्रत्ययों का प्रयोग ] --
१. शिष्य को गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए-सीसेण गुरुणो आणा पालिअव्वा, पालणिज्जा, पालणीआं । २. उसे यह कार्य करना चाहिए तेण इदं कज्जं करणीअं करणज्जं कायव्वं वा ।
३. क्या मुझे वहाँ शास्त्र ग्रहण करना चाहिए = मए तत्थ सत्यं घेत्तव्व किं ? ४. श्याम को कृपा नहीं छोड़ना चाहिए - सामाए किवा ण मोत्तव्व' । ५. वधू को सास की सेवा करना चाहिए - बहूए सासू सुम्सूसितन्वं सुस्सूसणीअं सुस्सूमणिज्जं वा । ६, रात्रि में ज्यादा देर तक नहीं जागना चाहिए - रत्तीए चिरं न जागरिअव्वं । नियम-
२८. विधि, चाहिए आदि अर्थों में जैसे कर्तृवाच्य में विध्यर्थक लकार का प्रयोग होता है, वैसे ही कर्मवाच्य और भाववाच्य में तव्व, अभिज्ज और अणीअ इन विध्यर्थक कृत्-प्रत्ययों का भी प्रयोग होता है । इन प्रत्ययान्त पदों के लिङ्ग और वचन कर्मवाच्य में कर्म के अनुसार तथा भाववाच्य में सदा नपुं० एकबचन में होते हैं । कर्मवाच्य और भाववाच्य में इनका प्रयोग होने से कर्त्ता में तृतीया तथा कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है ।
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