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विविध प्राकृत भाषायें ]
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थे । श्वेताम्बर जैनों के आगम ग्रन्थ इसी अर्धमागधी भाषा में उपनिबद्ध माने जाते हैं । अत: इसे ऋषि - भाषा या आर्ष-भाषा भी कहा जाता है । डा० जैकोबी ने जैन आगमों की भाषा को प्राचीन महाराष्ट्री ( जैन महाराष्ट्री ) कहा है । डा० पिशल ने इसका सयुक्तिक खण्डन किया है। सर ग्रियर्सन ने इसे शूरसेन ( मध्यदेश या पश्चिम ) और मगध ( पूर्वी बिहार ) के मध्यवर्ती देश ( अयोध्या ) की बोली माना है । जैनों के प्रथम तीर्थङ्कर ( ऋषभदेव ) भी अयोध्या में हुये थे ।
भौगोलिक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि अर्धमागधी का शौरसेनी तथा इससे निकली पूर्वी हिन्दी की अपेक्षा महाराष्ट्री तथा इससे निकली मराठी से अधिक सम्बन्ध है । अतः डा० हार्नली ने इसे आर्ष प्राकृत मानकर इसी से नाटकीय अर्धमागधी, महाराष्ट्री और शौरसेनी का विकास बतलाया है । हेमचन्द्राचार्य ने भी ऐसा ही स्वीकार किया है । '
इस विश्लेषण से ज्ञात होता है कि अर्धमागधी को भी दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - ( 1 ) नाटकीय अर्धमागधी और (२) श्वेताम्बरीय जैन आगमों की आर्ष अर्धमागधी | नाटकीय अर्धमागधी में मागधी की आधी विशेषतायें 'पाई जाती हैं ! मागधी की तीन प्रमुख विशेषतायें हैं - (१) र>ल में परिवर्तन, (२) श ष स श में परिवर्तन और ( ३ ) प्र० पु० एकवचन में 'ए' प्रत्यय इनमें से अर्धमागधी में तृतीय प्रवृति पाई जाती है । कहीं-कहीं प्रथम प्रवृत्ति भी पाई जाती है । द्वितीय प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है। आर्ष अर्धमागधी में विभिन्न भाषाओं का सम्मिश्रण है- 'आर्षे हि सर्वो विषयो विकल्प्यन्ते' । प्रमुख विशेषताएँ
भाग १ : व्याकरण
(१) मागधीवत अकारान्त पुं० ( कहीं कहीं 'ओ' भी ) होता है ।
एस: > एसे एसो, जीवः जीवे जीवो, एकः > एगे, त्वम् > तुमे ।
१. आर्षम् । हे० ८. १.३. २. हे० ८.१.३. ( वृत्ति ) |
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शब्दों के प्रथमा एकवचन में प्राय: 'ए' जैसे- सः > से सो; जिनः > जिणे जिणो,
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