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प्राकृत-दीपिका
[ नवम अध्याय
पुच्छइ (माणवकं पन्थानं पृच्छति लड़के से रास्ता पूछता है)। यहाँ पह' मुख्य कर्म है क्योंकि कर्ता को मार्ग पूछना ही अभीष्टतम है । 'माणवक' अपादान कारक है। द्विकर्मक धातु का प्रयोग होने से तथा माणवक में अपादान कारक की अविवक्षा होने से माणवक गौणकर्म है। अपादान की विवक्षा होने पर पञ्चमी होगी-माणवत्तो पहं पुच्छइ (माणवकात् पन्यानं पृच्छति) । अन्य उदाहरण-- रुक्खं ओचिबइ फलागि ( वृक्षम् =वृक्षादवचिनोति फलानिवृक्ष से फूलों को चुनता है)। माणव धम्म सासइ (माणवकं माणवकाय धर्म शास्ति - लड़के के लिए धर्म का उपदेश देता है)।
(३) 'अधि' (अहि) उपसर्ग पूर्वक शी (शयन करना), स्था (चिट्ठ-ठहरना) और आस्. (बैठना) धातुओं के आधार में । जैसे-अहिचिट्ठइ वइउंठं हरी (अधितिष्ठति वैकुण्ठं हरिः- हरि वैकुण्ठ में रहते हैं )। अन्यत्र सप्तमी होगी-- चिट्ठइ वइउंठम्मि हरी।
(४) अहि+नि+विस (विश्) धातु के योग में क्रिया के आधार में । जैसेअहिनिवसइ सम्मग्गं (अभिनिविशते सन्मार्गम् = सन्मार्ग में प्रवेश करता है)।
(५) उव, अनु, अहि तथा आ उपसर्ग के साथ 'वस' धातु के आधार में। जैसे-हरि बइठं उववसइ अहिवसइ, आवसइ वा ( हरिः वैकुण्ठमुपवसति अधिवसति आवसति वा = हरि वैकुण्ठ में निवास करते हैं )।
(६) अहिओ ( अभितः दोनों ओर ), परिओ ( परितः-सब ओर ), समया ( समीप ), निकहा ( निकषा-समीप ), हा ( खेद ), पडि (प्रति = ओर ), सवओ (सर्वतः), धिम ( धिक् ), उवरि उवरि ( उपरि उपरि-समीप), इन शब्दों के योग में इनका जिससे संयोग हो, उसमें । जैसे--अहिओ परिओ वा १. अधिशीङ स्थासां कर्म । अ० १. ४. ४६. २. अभिनिविशश्च । अ० १. ४. ४७. ३. उपान्वध्याङ वसः । अ० १. ४. ४८. ४. अभितःपरितःसमयानिकषाहाप्रतियोगेऽपि । वार्तिक ।
उभसर्वतसोः कार्या धिगुपर्यादिषु त्रिषु । वार्तिक ।
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