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प्राकृत-दीपिका
[ चतुर्दश अध्याय
(६) तृतीया एकवचन में अर्धमागधीवत् कहीं-कहीं 'सा' प्रत्ययान्त रूप तथा प्रथमा एकवचन में महाराष्ट्री के समान 'ओ' प्रत्ययान्त रूप बनते हैंमनसा मणसा, कायेन >कायसा, गौतमः >गोयमो, जिनः >जिणो।
(७) समास होने पर उत्तरपद के पहले 'म्' का आगम भी कहीं-कहीं देखा जाता है। जैसे-अन्न+अन्न अन्नमन्न, एग+एग = एगमेग ।
(८) आदेश होते हैं--यथा >जहा, अहा, यावत् >जाव आव ।
(९) सभी कालों, वचनों एवं पुरुषों में 'अस्' का 'आसी' रूप अर्धमागधी की तरह प्राप्त होता है। सभी कालों के बहुवचन में 'अहेसी' रूप भी महाराष्ट्रीवत् मिलता है।
(३) शौरसेनी प्राकृत महाराष्ट्री प्राकृत की अपेक्षा शौरसेनी प्राकृत संस्कृत के अधिक सन्निकट है। संस्कृत नाटकों में ( विशेषकर गद्य भाग में ) इस प्राकृत का प्रयोग विशेषरूप से देखा जा सकता है । महाकवि अश्वघोष, भास, कालिदास आदि के नाटकों में इनके उदाहरण देखे जा सकते हैं। शौरसेनी का प्राचीनतम रूप गिरनार-शिला पर सम्राट अशोक ( ई० पू० ३ शताब्दी ) की खुदी हुई चौदह धर्मलिपियों में मिलता है।' भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र ( १९-५१ ) में नायिका और उसकी सखियों के लिए शौरसेनी भाषा का विधान किया है। विदूषक भी इसी भाषा का प्रयोग करता है। प्राच्या भाषा इसी की एक उपशाखा है। शौरसेनी का उत्पत्तिस्थान शूरसेन देश ( मथुरा) माना जाता १. यहाँ संयुक्त व्यञ्जनों का समानीकरण, वर्णलोप और क्रियारूपों का
सरलीकरण मिलता है। तत्पश्चात् अश्वघोष ( ई० प्रथम शताब्दी ) के नाटकों में उक्त परिवर्तन के अतिरिक्त अघोषवर्गों के स्थान पर सघोषवर्णों का आदेश मिलता है। भास और कालिदास के नाटकों में मध्यवर्ती असंयुक्त वर्णों का लोप एवं महाप्राण ध्वनियों के स्थान पर 'ह' आदेश पाया जाता है, जो महाराष्ट्री के लक्षण हैं।
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