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विविध प्राकृत भाषा
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प्रवृत्तियाँ अर्धमागधी से साम्य रखती हैं। संभवतः अधं पागधी की भाषागत प्रवृत्तियों में सामान्य परिवर्तन हुआ होगा जिसके फलस्वरूप जैन महाराष्ट्री का जन्म हुआ होगा। पश्चात् व्यञ्जन वर्णों की लोप-प्रक्रिया के द्वारा सामान्य महाराष्ट्री का विकास हुआ होगा। अतः जन महाराष्ट्री को प्राचीन महाराष्ट्री भी कहा जाता है। इस तरह अर्धमागधी जो श्वेताम्बर जैन आगमों की भाषा है, वह ही परवर्ती काल में लिखे गये जैन श्वेताम्बरोय चरित, कथा, दर्शन आदि के ग्रंथों में परिवर्तित होकर जैन महाराष्ट्री बनी होगी। ___ सामान्य महाराष्ट्री की तरह इस में व्यञ्जन वर्णों का लोप अधिक नहीं होता है। 'य' और 'व' इस मृदुल ध्वनि का इस भाषा में पर्याप्त प्रयोग है। धर्मसंग्रहणी, समराइच्चकहा, कुवलयमाला, वसुदेवहिण्डी, पउमचरियं आदि ग्रंथ इसी भाषा में निबद्ध हैं। प्रमुख विशेषताएं--
(१) लुप्त व्यञ्जनों के स्थान पर 'य'श्रुति प्राय: सर्वत्र होती है । ( महाराष्ट्री में प्रायः स्वर शेष रह जाते हैं । 'य'श्रुति जैन महाराष्ट्री की प्रमुख विशेषता है । जैसे-लावण्यम् >लायण्णं, मदन: >मयणो, महाराजस्य > महारायस्स, भणितम >भणियं, भगवता भगवया ।
(२) अर्धमागधीवत् 'क' को कहीं-कहीं 'ग' हो जाता है। जैसे-श्रावक:> सावगो, तीर्थङ्करः>तित्थगरो, लोक:>लोगो, कन्दुकम् >गेंदुअं।
(३) अर्धमागधी की तरह आदि 'न' तथा मध्यवर्ती 'न' प्राय अपरिवर्तित रहते हैं। जैसे--अन्यथा >अनहा, नूनमेषा >नूणमेसा, कन्यकायाः >कन्नयाए, उत्पन्नः > उववन्नो, नाभिः >नाही।
(४) 'त' प्रत्ययान्त रूप 'ड' में परिवर्तित होते दिखलाई देते हैं। जैसेकृतम् > कडं, संवृतम् >संवुडं, व्याप्तम् >वावडं ।
(५) क्त्वा प्रत्ययान्त रूप अर्धमागधी के 'च्चा' और 'त्तु' की तरह तथा महाराष्ट्री के 'तूण' और 'ऊण' की तरह भी बनते हैं। जैसे-श्रुत्वा >सोच्चा, वंदित्वा>वंदित्तु, मुक्त्वा>मोत्तूण, च्युत्वा>पविऊण ।
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