________________
चतुर्दश अध्याय : विविध प्राकृत भाषायें
प्रस्तावना में प्राकृत भाषाओं के ऐतिहासिक विकासक्रम के सन्दर्भ में बतलाया गया है कि पालि, पैशाची, चूलिक- पैशाची, मागधी, शौरसेनी, अर्धमागधी, महाराष्ट्री एवं अपभ्रंश का क्रमिक विकास हुआ है । पालि भाषा में बौद्ध साहित्य लिखा गया है। इसका व्याकरण प्राकृत-व्याकरण से पृथक् है तथा इसे प्राकृत से पृथक् स्वतन्त्र भाषा के रूप में विद्वानों ने स्वीकार भी किया है । अतः इसका यहाँ विचार नहीं किया गया है। अपभ्रंश भी प्राकृत से यद्यपि पृथक् भाषा है परन्तु हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने प्राकृत-व्याकरण में इसका भी अनुशासन किया। है । अतः यहाँ संक्षेप में उसकी भी विशेषतायें बतलाई गई हैं । सुबोधता की दृष्टि में महाँ ऐतिहासिक क्रम न अपनाकर निम्न क्रम अपनाया गया है-
(१) महाराष्ट्री, (२) जैन महाराष्ट्री, (३) शौरसेनी, (४) जैन शौरसेनी, (५) मागधी, (६) अर्धमागधी, (७) पंशाची, (८) चूलिका - पैशाची और (९) अपभ्रंश ।
(१) महाराष्ट्री प्राकृत
इमे ही सामान्य प्राकृत के नाम से जाना जाता है । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में 'महाराष्ट्री' का शब्दत: उल्लेख न करके 'प्राकृत' इस साधारण नाम से 'महाराष्ट्री प्राकृत' के ही लक्षण और उदाहरण दिए हैं । दण्डी ने काव्यादर्श में इसे उत्कृष्ट प्राकृत कहा है ।" वररुचि ने इसे 'महाराष्ट्री' नाम दिया है।
१. महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः ।
सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम् ॥ काव्यादर्श १.३४. २. शेषं महाराष्ट्रीवत् । प्राकृतप्रकाश १२.३२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org