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११२] प्राकृत-दीपिका
[ त्रयोदश अध्याय ठा (स्था) ठाअइ ठाएइ
ठाआवइ
ठाआवेइ झा (ध्ये) झाअइ झाएइ
झाआवइ
झाआवेइ तोस (तुष्) तोसइ तोसेइ
तोसावइ
तोसावेइ खम (क्षम्) खामइ खामेइ खमावइ
खमावेइ अन्य उदाहरण--ठावेइ, पूरेइ, वड्ढेई, वत्तेइ, मारेइ, णहावेइ; जाणावेइ, पुच्छावेइ, गण्हावेइ, मारावेइ। 'हस' और 'हो' धातु के प्रेरक रूप-- धातु वर्तमान भूत भविष्यत् विधि+आज्ञा क्रियातिपत्ति इस हासई हासीअ हासिहिइ हासउ
हासेज्ज हो होअइ होअसी होइहिइ
होअउ
होएज्ज प्रेरणार्थक कर्मवाच्य एक भाववाच्य के रूप
मूल धातु में 'आवि' प्रत्यय जोड़कर उसमें कर्म-भाववाच्य के 'ईस' या 'इज्ज' प्रत्यय जोड़ते हैं, पश्चात वर्तमानकालादि के प्रत्यय जोड़कर रूप बनाये जाते हैं। पूर्वोक्त नियमानुसार सामान्यरूप से मूल धातु के उपान्त्य 'ब' का 'आ' करके उसमें 'ईअ' या 'इज्ज' जोड़ देने से कर्म भाववाच्य की प्रेरक धातु बन जाती है। जैसे- हस+अ>हास+ईअ+इ-हासीअई । हस+अ> हास+इज्ज+इ हासिज्जई । हस+आवि - हसावि+ईअ+ई-हसावीअइ । इसाविज्जइ। कृ>कर+अ-कार+ईअ+इ-कारीअइ। कारिज्जइ । करावीअई। कराविज्जइ (काराप्यते)।
(३) सन्नन्त (इच्छार्थक) क्रियायें किसी कार्य को करने की इच्छा का अर्थ बतलाने के लिए उस कार्य का अर्थ बतलाने वाली धातु से संस्कृत में सन् (स) प्रत्यय जोड़ा जाता है तथा धातु को द्वित्वादि कार्य होते हैं। प्राकृत में सन्नन्त रूप संस्कृत से ध्वनिपरिवर्तन द्वारा बनाये जाते हैं प्राकृत में उनका कोई विशेष नियम नहीं हैं । जैसे-गुप् >जुगुच्छ इ-जुगुच्छ। (जुगुप्सति-तिरस्कार करने की इच्छा करता है)। भुज् >बुहुक्ख+इ-बुहुक्खइ (बुभुक्षति भोजन करने की इच्छा करता है)।
>सुस्सूस+इ-सुस्सूसइ (शुषति सुनने की इच्छा करता है)। > निच्छ+इ=लिच्छइ (लिप्सते-लाभ की इच्छा करता है)।
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