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एकादश अध्याय : शब्दरूप प्रमुख विशेषताएँ
१. द्विवचन का अभाव होने से उसके स्थान पर बहुवचन का प्रयोग ।
२. कुछ अपवाद स्थलों को छोड़कर सर्वत्र चतुर्थी और षष्ठी के रूपों में एकरूपता । चतुर्थी के मूल रूपों का प्रायः अभाव होने से चतुर्थी का लोप भी माना जाता है। अतः चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी विभक्ति होती है।' ... ३. ऋकारान्त शब्दों का अभाव है।
४. एकारान्न, ऐकारान्त, ओकारान्त और औकारान्त शब्दों का भी अभाव है।
५. व्यञ्जनान्त शब्द स्वरान्त बन गये हैं। १. चतुर्थ्याः षष्ठी । तादर्थं ङा । हे० ८. ३. १३१-१३२.
२. ऋकारान्त संस्कृत संशाएं प्राकृत में अकारान्त या उकारान्त हो गई हैं। अतः उनके अकारान्त या उकारान्त के समान रूप चलते हैं। प्रथमा एकवचन में विकल्प से 'ऋ' को 'आ' आदेश भी होता है। जैसे-[ऋकारान्त पु.] कत्ता (कर्तृ कर्ता), भत्ता (भर्तृ), भाया (भ्रातृ), पिआ (पितृ) आदि । कर्तृ>कत्तार, कत्तु, कता। भर्तृ>भत्तार, भत्तर, भत्तु, भत्ता । भ्रातृ> भायर, भाउ, भाता। पितृ >पिअर, पिउ, पिआ। दातृ>दायार दाउ । [ऋकारान्त स्त्रीलिंग]--माआ (मातृ), ससा (स्वस), माउसिआ (मातृस्वसृ), धूआ (दुहित)।
३. संस्कृत के एकारान्त, ऐकारान्त, ओकारान्त और औकारान्त शब्द प्राकृत में अकारान्त, इकारान्त या उकारान्त (ह्रस्य या दीर्घ) हो गये हैं। अतः इनके रूप अकारान्तादि के समान बनते हैं। जैसे-नो>नावा, गो> गावी आदि।
४. संस्कृत व्यञ्जनान्त शब्द प्राकृत में स्वरान्त हो गये हैं। अत: उनके
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