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प्राकृत-दीपिका
[पञ्चम अध्याय
विशेष
प्राकृत में कर्तृवाध्य और कर्मवाच्य के भूतकृदन्त में यद्यपि कोई भेद नहीं है परन्तु कहीं-कहीं संस्कृत के कर्मणि भूतकृदन्त में 'व' जोड़ कर भेद करते हैं। जैसे-कृ>कय+वं - कयवं ( कृतवान् ), पुट्ठवं ( स्पृष्टवान् ) ]
३. भविष्यत् कृदन्त
[ इस्संत, इस्समाण और इस्सई ] भविष्यत् काल में जब किसी कार्य के होते रहने का बोध होता है तो वहाँ इस्संत, इस्समाण और इस्सई ( 'इस्सई' केवल स्त्रीलिङ्ग में ) प्रत्यय होते हैं। संस्कृत में स्यतृ और स्यमाण प्रत्यय होते हैं। वस्तुतः वर्तमानकालिक प्रत्ययों में भविष्यत् बोधक 'इस्स' जोड़ने से ही भविष्यत्कालिक प्रत्यय बने हैं। जैसेकर+इस्संत - करिस्संतो ( करिष्यन् - करता होगा), करिस्समाणो ( करिष्यमाणः ), करिस्सई (करिष्यन्ती - करती होगी), भविस्संतो भविस्समाणो भविरसई आदि।
४. सगन्ध सूचक भूत कृदन्त ( पूर्वकालिक क्रिया) [ तु, तूण तथा-अ, तुआण, इत्ता, इत्ताण, आय, आए ] 'कर' या 'करके' अर्थ में अर्थात् जब एक कर्ता की एकाधिक क्रियाएँ होती हैं तो पूर्वकालिक क्रिया बोधक धातुओं में तु( उं), तूण (ऊण ) आदि प्रत्यय जोड़े जाते हैं।' तुआण ( उआण); इत्ता, इत्ताण, आय और आए प्रत्ययों का प्रयोग प्रायः अर्धमागधी प्राकृत में होता है। संस्कृत में इस प्रयोजन के लिए उपसर्गरहित धातुओं में क्त्वा ( त्वा ) और सोपसर्ग धातुओं में ल्यप (य) प्रत्यय जुड़ता है । परन्तु प्राकृत में ऐसा भेद नहीं है ।
नियम-(१) सम्बन्ध सूचक भूत कृदन्त के प्रत्ययों ( आय और आए को छोड़कर ) के पूर्ववर्ती 'अ' को 'इ' और 'ए' आदेश होते हैं । (२) तूण, तुआन और इत्ताण के णकार पर विकल्प से अनुस्वार होता है। जैसे-हस+तु१. क्त्वस्तुमतूणतुआणाः । हे० F. २. १४६.
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