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नवम अध्याय : कारक एवं विभक्ति
प्राकृत में यद्यपि कारक एवं विभक्तियों के प्रयोग सम्बन्धी नियम संस्कृत के ही समान हैं परन्तु व्यवहार में नियमों वा व्यतिक्रम भी देखा जाता है । जैसे
(१) चतुर्थी के स्थान पर षष्टी' प्राकृत भाषा में चतुर्थी विभक्ति के रूप केवल अवशेष के रूप में मिलते हैं, अन्यथा सर्वत्र पष्ठी विभक्ति के ही रूपों का प्रयोग मिलता है । चतुर्थी के बहुवचन के रूप तो पूर्णरूप से पष्ठी विभक्ति वाले हैं । जैसे -- मुणिस्स मुणीण वादेइ (मुनये मुनिभ्यो वा ददाति = मुनि अथवा मुनियों के लिये देता है । नमो देवस्स (देवाय) देवाण वा ( नमः देवाय देवेभ्यः वा देवताओं के लिये नमस्कार है ) ।
(२) द्वितीया, तृतीया, पश्चमी और सप्तमी के स्थान पर षष्ठी र कहींकहीं द्वितीयादि विभक्तियों के स्थान पर भी षष्ठी देखी जाती है । जैसे(क) द्वितीया > षष्ठी - - सीमाधरस्स वन्दे ( सीमाधरं वन्दे सीमाधर की वन्दना करता हूँ ) । तिस्सा मुहस्स भरिमो ( तस्या: मुखं स्मरामः = उसके मुख का स्मरण करते हैं) । (ख) तृतीया > षष्ठी - धणस्स लद्धो (धनेन लब्धः - धन से प्राप्त ) । चिरस्स मुक्का ( चिरेण मुक्ता = चिरकाल से मुक्त हुई ) । ते सिमेअमणाइणं ( तैरेतदनाचरितम् = उनके द्वारा यह आचरित नहीं हुआ है) । (ग) पञ्चमी > षष्ठी - चोरस्स बीहइ ( चोराद्बिभेति = चोर से डरता है ) । सप्तमी > षष्ठी - पिट्ठीए केसभारो ( पृष्ठे केशभारः पीठ पर बालों
का भार ) ।
(३) द्वितीया और तृतीया के स्थान पर सप्तमी - कभी-कभी द्वितीया
१. चतुर्भ्याः षष्ठी । हे० ८. ३. १३१.
२. क्वचिद्वितीयादेः । हे० ८. ३. १३४. ३. द्वितीया तृतीययोः सप्तमी । हे० ८. ३. १३५.
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