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६२. रामविप्पलावपर्व सीयलनलोल्लियङ्गो, आसत्थो वाणरेहि परिकिण्णो । अह विलविउं पयत्तो, रामो कलुणेण सदेणं ॥ ३ ॥ हा वच्छ | सायरवरं, उत्तरिऊणं इमं अइदुलर्छ । विहिनोएण अणत्थं, एरिसय पाविओ सि तुमं ॥ ४ ॥ किं माणेण महाजस ! ण य वायं देसि विलवमाणस्स । जाणसि य विओगं ते, न सहामि मुहुत्तमेत्तं पि ॥५॥ तहुं मे गुरूहि वच्छय ! समप्पिओ आयरेण निक्खेवो । किं ताण उत्तरमिणं, दाहामि विमुक्कलज्जोऽहं? ॥ ६ ॥ सुलभा नरस्स लोए, कामा अत्था अणेयसंबन्धा । नवरं इहं न लब्भइ, भाया माया य जणओ य ॥ ७॥ अहवा परम्मि लोए, पावं अइदारुणं मए चिणं । तस्सेयं पावफलं, नायं सीयानिमित्तम्मि ॥ ८ ॥ अज्ज महं एयाओ, भुयाउ केऊरकिणइयङ्काओ । देहस्स भारमेत्तं, जायाओ कज्जरहियाओ ॥ ९॥ एयं मे हययियं, वज्जमयं निम्मियं कयन्तेणं । जेणं चिय न य फुट्टइ, दट्टण सहोयरं पडियं ॥ १० ॥ सत्तदमेण तइया, सत्तीओ पञ्च करविमुक्काओ। गहियाउ तुमे सुपुरिस!, संपइ एक्का वि न विरुद्धा ॥ ११ ॥ मुणिया य निच्छएणं, सत्ती वजद्दलेहि निम्माया । सिरिवच्छभूसियं पि हु, जा भिन्दइ लक्खणस्स उरं ॥ १२ ॥ उद्धेहि लच्छिवल्लह !, धणुयं घेत्तण मा चिरावेहि । मज्झागया वहत्थे, एए सत्तू निवारेहि ॥ १३ ॥ ताव य एस परियणो, बच्छय ! दिट्ठीसु रमइ पुरिसस्स । आवइपडियस्स पुणो, सो चेव परम्मुहो ठाइ ॥ १४ ॥ ताव य गज्जन्ति परा, अणुजीविगया मणोहरं वयणं । जाव बहुसत्थदाढं, वेरियसीह न पेच्छन्ति ॥ १५ ॥ माणुनओ वि पुरिसो, एगागी वेरिएहि पडिरुद्धो । अवलोइउं दिसाओ, सुमरइ एक्कोयरं सूरं ॥ १६ ॥ मोत्तण तमे वच्छय !, एत्थ महाविग्गहे समावडिए । को ठाहिइ मह पुरओ. निययं त हियं विचिन्तेन्तो ॥ १७ ॥ तुज्झ पसाएण मए, निम्बूढं दुक्खसंकर्ड एयं । न य नज्जइ एत्ताहे, कह य भमि(वि)स्सामि एगागी ॥ १८ ॥ भो मित्त वाणराहिव !. साहणसहिओ कुलोचियं देसं । वच्चसु य अविग्घेणं, सिग्छ भामण्डल ! तमं पि ॥ १९ ॥
गिर पड़े। (२) घेरे हुए वानरों द्वारा शरीर पर शीतल जल छिड़कनेसे होशमें आये हुए राम करुण शब्दसे रोने लगे। (३) हा वत्स ! अत्यन्त दुर्लव्य इस समुद्रको पार करके विधिके योगसे इस तरह तुम अन्यत्र पहुँच गये हो । (४) हे महायश ! क्या मानके कारण तुम रोते हुए मुझको उत्तर नहीं देते ? तुम जानते हो कि मैं तुम्हारा वियोग एक मुहूर्तमात्र भी सह नहीं सकता । (५) हे वत्स ! गुरुजनोंने तुमको एक धरहरके तौरपर आदरके साथ मुझे सौंपा था। निर्लज्ज मैं उन्हें अब क्या उत्तर दूंगा? (६) विश्वमें लोगों के लिए काम, अर्थ एवं अनेक सम्बन्ध सुलभ है, परन्तु यहाँ केवल भाई, माता एवं पिता नहीं मिलते। (७) अथवा परलोकमें मैंने अतिभयंकर पापका अनुष्ठान किया होगा। सीताके निमित्तसे उसका यह फल मिला है। (5) आज केयूरसे शोभित चिह्नवाली मेरी ये भुजाएँ प्रयोजन रहित होनेसे शरीरके लिए भारभूत हो गई हैं। (8) यमने मेरा यह पापी हृदय वज्रका बनाया है, जिससे भाईको गिरा हुआ देखकर भी वह फूटता नहीं है। (१०) हे सुपुरुष ! शत्रुम राजाके हाथसे छोड़ी गई पाँच शक्तियाँ उस समय तुमने ग्रहण की थी, किन्तु आज एकको भी तुम रोक न सके। (११) इससे ज्ञात होता है कि यह शक्ति निश्चय ही वनके समूहसे बनाई गई होगी, जिससे श्रीवत्ससे विभूपित लक्ष्मणका वक्षस्थल भी वह भेद सकी । (१२) हे लक्ष्मीवल्लभ ! तुम उठो। धनुष ग्रहण करनेमें देर मत लगाओ। मेरे वधके लिए आये हुए इन शत्रुथोंको तुम रोको । (१३) हे वत्स ! यह कुटुम्ब-परिवार मनुष्यकी दृष्टिमें तभीतक रमण करता है जबतक दुःख नहीं आ पड़ता। दुःख आनेपर वही फिर पराङ्मुख हो जाता है। (१४) तभीतक दूसरे अनुजीवी लोग मनोहर वचन कहते हैं जवतक अनेक शत्ररूपी दाढ़ोंसे युक्त बैरी रूपी सिंहको वे नहीं देखते । (१५) शत्रुओं द्वारा घिरा हुआ अभिमानी किन्तु एकाकी पुरुष भी चारों ओर देखकर शूरवीर सहोदर भाईको याद करता है। (१६) हे वत्स ! तुम्हें छोड़कर दूसरा कौन अपने हितका विचार करके इस होनेवाले महाविग्रहमें मेरे सम्मुख खड़ा हो सकता है ? (१७) तुम्हारे प्रसादसे ही मैंने यह दुःखका संकट उठाया है। मैं नहीं जानता कि अब मुझ एकाकीका क्या होगा ? (१८) .
हे वानराधिप मित्र! तुम अपनी सेनाके साथ कुलोचित देशमें निर्विघ्न चले जाओ, और हे भामण्डल ! तुम भी शीघ्र
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