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पउमचरियं रामस्स सरवरेहिं, निसायरो विम्भलो कओ सिग्धं । न य गेण्हिउं समत्थो, बाणं न सरासणं चेव ॥ बाणेहि लोढिओ चिय, धरणियले राहवेण दहवयणो । दीसह पुणो पुणो च्चिय, अन्नन्नरहे समारूढो ॥ विच्छिन्नचावकवओ, छबारा रावणो कओ विरहो । तह वि य न य साहिज्जइ, अब्भुयकम्मो समरसूरो ॥ पउमो विहियहियओ, जंपइ जो मह सराहओ न मओ । पुण्णेहि रक्खिओ वि हु, परभवनणिएण तुङ्गेणं ॥ ६९॥ निसुणेहि भणिज्जन्तं, मह वयणं रक्खसाहिवइ ! एकं । जो मज्झ तुमे भाया, निहओ सत्तीपहारेणं ॥ ७० ॥ तस्साणुमग्गलम्गं, नेमि तुमे नमपुरिं न संदेहो । होउ त्ति एव भणिओ, दसाणणो अइगओ लङ्कं ॥ ७१ ॥ चिन्तेइ सावलेवो, एक्को मे वेरिओ मओ निहओ । किंचि हरिसाइयमणो, पविसइ निययं महाभवणं ॥ ७२ ॥ रुद्धे सोऊण सुए, तं चिय एकोयरं समरसूरं । सोयइ निसासु एत्तो, दहवयणो तिबदुक्खन्तो ॥ ७३ ॥ केएत्थ पुबदुकरण रणम्मि भङ्ग, पावन्ति बन्धणमिणं अवरे हयासा ।
अने पुणो सुचरिएण जयन्ति धीरा, लोए सया विमलकित्तिधरा भवन्ति ॥ ७४ ॥
॥ इय पउमचरिए सत्तिसंपायं नाम एगसट्ठ' पव्वं समत्तं ॥
६२. रामविष्पलावपव्वं
तत्तो समाउलमणो, पउमो सोगेण ताडिओ गाढं । पत्तो य तुरियवेगो, नत्थऽच्छइ लक्खणो ठाणे ॥ १ ॥ दण सत्तिभिन्नं, सहोयरं महियलम्मि पल्हत्थं । रामो गलन्तनयणो, मुच्छावसविम्भलो पडिओ ॥ २ ॥
उत्तम बाणोंसे राक्षस शीघ्र ही विह्वल बना दिया गया। वह न तो बाण और न धनुष लेनेमें समर्थ हुआ । (६६) रामके द्वारा बागोंसे जमीन पर लोटाया गया रावण पुनः पुनः दूसरे दूसरे रथमें आरूढ़ होता देखा जाता था । (६७) धनुष और कवचसे विच्छिन्न रावण छः बार रथहीन किया गया तथापि अद्भुत कर्मवाला तथा युद्ध करनेमें वीर वह बशमें नहीं आता था। (६८) तव विस्मित हृदयवाले रामने कहा कि मेरे द्वारा वाणोंसे चाहत होने पर भी तुम नहीं मरे । वस्तुतः परभवमें किये हुए ऊँचे पुण्यसे ही तुम रक्षित हो । (६६) हे राक्षसाधिपति ! मेरा एक वचन तुम सुनो। तुमने जो मेरे भाईको शक्तिके प्रहारसे मारा है तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि मैं भी उसके पीछे पीछे यमपुरीमें तुम्हें पहुँचा दूँगा । 'भले' -- ऐसा कहकर रावण लंकामें लौट आया । ( ७०-७२) वह अभिमान के साथ सोचता था कि मेरा एक शत्रु तो मारा गया। इस तरह मनमें कुछ हर्षित होता हुआ वह अपने महाभवनमें प्रविष्ट हुआ । ( ७२ ) पुत्र एवं समर में शूर सहोदर भाईका पकड़ा जाना सुनकर तीव्र दुःखसे पीड़ित रावण तबसे रातमें शोक करने लगा । (७३) युद्धमें पूर्वकृत पापके कारण कई लोग विनष्ट होते हैं । दूसरे हताश हो बन्धन प्राप्त करते हैं । अन्य धीर पुरुष सुचरितके कारण जीतते हैं और लोक सदा विमल यशको धारण करनेवाले होते हैं ।
॥ पद्मचरित में शक्ति सम्पात नामक इकसठवाँ पर्व समाप्त हुआ |
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६२. रामका विप्रलाप
इसके पश्चात् मनमें व्याकुल तथा शोकसे अत्यन्त ताडित राम जिस स्थानमें लक्ष्मण था वहाँ जल्दी ही आ पहुँचे । (१) शक्तिसे विदारित और जमीनपर लिटे हुए सहोदर को देखकर आँखों से आँसू गिराते हुए राम मूच्छाके कारण विह्वल हो नीचे
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