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"उसकी वजह से तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं। वह हम दोनों से अधिक बुद्धिमती है ।"
"यह क्या अप्पाजी, आप लोगों के साथ, मेरे जाने न जाने के बारे में आराम से सोच-विचार करके निश्चय करने की बात कह रहे थे, अभी ऐसा कह रहे हैं मानो निश्चय ही कर दिया हो। "
"हाँ अम्माजी ! तुम्हें छोड़कर जाना क्या हमारे लिए कभी सम्भव हो सकता है ? यह तो निश्चय है कि तुम्हें अवश्य ले जाएँगे। परन्तु विचारणीय विषय यह नहीं । विचार करने के लिए अनेक अन्य बातें भी तो हैं।"
"मतलब, मेरे पाठ - प्रवचन का कार्यक्रम न
चूके, इसके लिए कोई ऐसी व्यवस्था की सम्भावना के बारे में विचार कर रहे हैं, यही न?"
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'हाँ बिटिया, ठीक यही बात है, बड़ी होशियार हो तुम । "
" बहुत अच्छा, अध्यापकजी को साथ ले जाकर वहाँ भी 'सा रे ग म' गवाते
रहेंगे ?"
"
'क्यों नहीं हो सकता ?"
"
'क्या ऐसा भी कहीं होता है ? वहाँ के लोग क्या समझेंगे ? हमारे घर में जैसे चलता है वैसा ही वहाँ भी चलेगा ? यह कभी सम्भव है? क्या यह सब करना उचित
होगा ?"
"इसीलिए तो हमने कहा, इन सबके बारे में आराम से विचार करेंगे, समझी ? उन अध्यापकजी से भी विचार-विमर्श करेंगे। गुरु और शिष्या दोनों जैसी सम्मति देंगे वैसा करेंगे। आज का पाठ प्रवन्धन सब पूरा हो गया अम्माजी ?"
"सुबह संगीत और नृत्य के पाठ समाप्त हुए। साहित्य पढ़ाने के लिए अब गुरुजी आएँगे।"
" इन तीन विषयों में कौन-सा विषय तुम्हें अधिक प्रिय है, अम्माजी ?"
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'मुझे तीनों में एक-सी रुचि है। हमारे गुरुजी कहते हैं कि इन तीनों का पारस्परिक सम्बन्ध ऐसा है कि एक को छोड़ दूसरा पूर्ण नहीं हो सकता। साहित्य यदि चेहरा है तो संगीत और नृत्य उस चेहरे की दो आँखें हैं। "
ठीक इसी समय लेंका ने आकर खबर दी कि कविजी आये है।
सुनते ही शान्तला झूले से कूदकर भागी। हेगड़े मारसिंगय्या भी उसका अनुसरण करते चल दिये।
शान्तला के अध्यापक बोकिमय्या अपने ताइपत्र ग्रन्थ खोलने लगे। अपनी शिष्या के साथ उसके पिता भी थे। हेगड़े मारसिंगय्या को देखकर वे उठ खड़े हुए और प्रणाम किया। हेगड़े ने उन्हें बैठने को कहा और खुद भी बैठ गये ।
कभी पढ़ाने के समय पर न आनेवाले हेग्गड़े के आज आने के कारण अध्यापक
32 : पट्टमहादेवी शान्तला