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"हेगडे जी? आपके और अम्माजी के कहे अनुसार आज मबह जो यहाँ ठहर गया, सो बहुत अच्छा हुआ। आज मुझे जो एक नया आनन्द मिला उससे-मुझे विश्वास है, मैं अपने पुराने सारे दुःख को भूल जाऊँगा। किसी भी तरह से हो आप इस बात की कोशिश करें कि आप राजधानी ही में बस सकें। मैं यह बात अम्माजी के लिए कह रहा हूँ, आप अन्यथा न समझें।"
"देखें ! आज बृहस्पतिवार है। आप लोग तेईस धड़ियों बीतने के बाद यात्रा करें। जहाँ तक हो सकेगा हम पहले ही वहाँ पहुँचेंगे। मुहूर्त काल तक तो किसी भी हालत में जरूर ही पहुंच जाएँगे; चूकेंगे नहीं। युवराज से यह बात कह दें। हेग्गड़तीजी से मिल लें और मालूम कर लें कि युवरानीजी से क्या कहना है"- इतना कहकर हेग्गड़े वहाँ से उठकर अन्दर चलने को तैयार हुए।।
इधर शान्तला का संगीत-पाठ शुरू हो चुका था। __शान्तला की मधुर ध्वनि सुनकर रेविमय्या दंग रह गया और संगीत सुनता हुआ वहीं मूर्तिवत् खड़ा रहा।
राहुकाल के जीतने पर दोनों राजदूत हेग्गड़े, हेगड़ती और शान्तला से विदा लेकर निकले। शान्तला रेविमय्या और उसके साथी को अहाते तक पहुँचाकर लौटी। उसके माता-पिता झूले पर बैठे बातचीत कर रहे थे। शान्तला को आयो देखकर हेग्गड़ती माचिकब्बे-"किसी तरह रेविमय्या तुम्हें छोड़कर चला गया! मुझे आश्चर्य इस बात का है कि जो आसानी से किसी के पास न जानेवाली यह उस रेविमय्या में क्या देखकर चिरपरिचित की तरह बिना संकोच के उसके पास गयी?" कहकर हेग्गड़े की ओर प्रश्नार्थक दृष्टि से देखने लगी।
"उसने क्या देखा, इसने क्या समझा सो तो ईश्वर ही जाने। परन्तु इतना तो निश्चित है कि इन दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गयी है।"
"जाने भी दीजिए। यह कैसी मैत्री । मैत्री के लिए कोई उम्र और हैसियत भी तो चाहिए? वह तो एक साधारण राजभट है। फिर वह आपकी उम्र का है।"
मारसिंगय्या मुस्कराये और बोले :
"सच है । जो तुम कहती हो वह सब सच है। जितना तुम देख और समझ सकी हो उतना ही तुम कह रही हो। परन्तु उन दोनों का अन्तरंग क्या कहता है। सो तो यह तुमको मालूम नहीं। अम्माजी, यो क्यों खड़ी हो गयी, आओ, बैठो।"
शान्तला आकर दोनों के बीच में झूले पर बैठ गयो।
मारसिंगय्या ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "राजकुमार के उपनयन संस्कार के अवसर पर तुम हमारे साथ सोसेऊर चलोगी न?"
30 :: पट्टयहादेवी शान्तला