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पूर्वभव एवं देहधारण
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समीपतर आता जा रहा था और उसे ऐसा स्पष्ट अनुभव हुआ कि जैसे मुखमार्ग से वह जम्बू वृक्ष उसके उदर मे पहुंच गया है। यह वही पल था, जब विद्युन्माली देव की ब्रह्मलोक की आवास अवधि समाप्त हो गयी थी और उसका जीव धारिणीदेवी के गर्भ मे स्थापित हो गया था। अकल्पित आनन्दानुभूति से श्रेष्ठितिय धारिणीदेवी पुलकित हो रही थी। इन विचित्र स्वप्नो मे चौककर धारिणीदेवी सहसा जाग उठी। जाग जाने के पश्चात् भी धारिणी देवी जैसे कुछ पल उसी मायानगरी में खोयी रही। फिर मधुर शब्दो से पति को जगाया । ऋपभदत्त ने अत्यन्त कोमल स्वर मे पूछा-प्रिये, क्या बात है ? तुमने कोई स्वप्न तो नही देखा है ? उसने सक्षिप्त उत्तर दिया कि हाँ, मैंने स्वप्न देखा है। जब जिज्ञासावश ऋपभदत्त ने स्वप्न का वृत्तान्त कह सुनाने का आग्रह किया, तो धारिणीदेवी ने मृगराज और जम्बू वृक्ष के स्वप्नो का वर्णन कर दिया। यह वृत्तान्त सुनकर श्रेष्ठि ऋषभदत्त को बहुत सन्तोष हुआ। उसने विस्मित धारिणीदेवी को जसमित्र के कथन का स्मरण दिलाया कि वह स्वप्न मे सिंह का दर्शन करेगी जो उसके मनोरथ-सिद्धि का शुभ सकेत होगा ।
यह स्मरण आते ही धारिणीदेवी की तो बाँछे ही खिल गयी। उसे अतिशय हर्ष का अनुभव होने लगा। पति ने उससे कहा कि प्रिये, अब इसमे तनिक भी सन्देह नहीं रहा कि शीघ्र ही तुम्हे तेजस्वी, पराक्रमी और धर्मप्रिय पुत्र की माता कहलाने का सौभाग्य प्राप्त होने वाला है। हमारे लिए सुसमय अब समीप