Book Title: Mukti ka Amar Rahi Jambukumar
Author(s): Rajendramuni, Lakshman Bhatnagar
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 210
________________ - १६८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार देने पहुंची । अपने प्यारे पुत्र को देखकर सेठ अत्यन्त प्रसन्न हुआ । स्नानादि करा के धीरे-धीरे उसे स्वस्थ किया गया । जब वह पूर्ण स्वस्थ हो गया तो पुन. राजभवन की ओर से निकला पर उसे बुलाने पर भी वह भवन मे नही गया क्योकि वह भली-भाँति वेदना का अनुभव कर चुका था । सुनो जयश्री । तुम मेरा अभिप्राय स्पष्टरूपेण समझ चुकी होगी । यह जीवन भी माता के गर्भ मे सवानवमासपर्यन्त उसी स्थिति मे रहता है । दोनो तरफ मलमूत्र है । उलटा लटका रहता है । अत्यन्त वेदना का अनुभव करने के पश्चात् वह बाहर निकलता है । जम्बूकुमार आगे कहने लगे कि सांसारिक मोहमाया, सुख-लोलुपता और विषय वासनाएं इसी प्रकार का अनर्थ करती है । वे अपना घातक स्वरूप लेकर मनुष्य की हानि करने नही जाती । वे तो मोह का रूप बनाकर बैठी रहती हैं । मनुष्य ही उनकी ओर लपकता है । दीपक की ओर आत्मदाह के लिए पतंगा ही तो दौडता है। ललितकुमार भी यदि अपनी वासना को वश मे कर लेता, कामुकता के आधीन होकर राजभवन मे नही गया होता तो भला उसकी यह दशा हुई होती ! मैं तो भलीभांति इन सासारिक सुखो की ऐसा विद्रूपता से परिचित हो गया हूँ । इसी कारण अव में ऐसी भूल नही कर सकता । यह निश्चय है कि वे सुख मुझे फँसाने के लिए मेरे पास तो आयेंगे नही, फिर में स्वेच्छा से उनके जाल में क्यों फँस जाऊँ । मनुष्य जीवन पाया है, तो इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाने दो । इसका सदुपयोग हम इसी रूप में कर सकते हैं जयश्री । कि अनन्त सुख की प्राप्ति

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