Book Title: Mukti ka Amar Rahi Jambukumar
Author(s): Rajendramuni, Lakshman Bhatnagar
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 213
________________ उपसंहार | २०१ तीव्रता के साथ विकसित होने लगी। अपने पति के मार्ग की उत्तमता को उन्होने परख लिया था। वे भी जम्बूकुमार का अनुगमन करने की अभिलाषा रखने लगी और उत्तरोत्तर यह अभिलाषा प्रबल होने लगी। उन्होंने अपके पतिदेव के समक्ष श्रद्धा सहित नमन करते हुए विनम्रता के साथ निवेदन किया कि आपकी महती कृपा से हमारी आत्माएँ भी जाग गयी है । अब हम यह भली भांति जान गयी हैं कि सुखो की मृग-मरीचिका के प्रति आकर्षित होने मे कोई लाभ नहीं है। आप तो सासारिक सुखो एव विषयो की त्यागकर विरक्त हो ही रहे हैं, अब कृपा कर हमे भी इस मार्ग के पथिक हो जाने का आशीर्वाद प्रदान कीजिए। हम सब आपके अनुगमन के लिए उद्यत हैं और कर्मों का विनाश कर अजर-अमर सुख प्राप्त करने की अभिलाषा रखती हैं । अब तो आपकी अनुकम्पा से हमे तनिक बोध प्राप्त हुआ है, किन्तु आपको आपके सन्मार्ग से च्युत करने का प्रयत्न हमने कम नही किया । हमे उसके लिए खेद है। हमारा वह अज्ञान-प्रेरित प्रयत्न था-उसके लिए हमे क्षमा कर दीजिए और हमारा भी उद्धार कीजिये । आपके सग ही हम सभी दीक्षा ग्रहण करना चाहती हैं--कृपया इस हेतु हमे भी अनुमति प्रदान कीजिए। आपने 'पाणिग्रहण' कर हमे लौकिक जीवन मे सरक्षण प्रदान किया है, अब आत्मोन्नति की साधना मे भी हमारा मार्ग-दर्शन कीजिए। अपनी नव-विवाहिता पत्नियो के इन उद्गारो से जम्बूकुमार को हार्दिक प्रसन्नता हुई। इनकी कल्याण-कामना से प्रेरित होकर

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