Book Title: Mukti ka Amar Rahi Jambukumar
Author(s): Rajendramuni, Lakshman Bhatnagar
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 220
________________ २०८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार गहन गम्भीर निस्तब्धता और नि शब्दता के वोझिल वातावरण को विदीर्ण करते हुए श्रेष्ठि ऋषभदत्त ने अपने पुत्र से कहा कि जम्बूकुमार | तुम जैसे पुत्र को पाकर हम धन्य हो उठे हैं । यथार्थ मे तुम असाधारण आत्मा हो। तुमने हमे भी एक यथार्थ दृष्टिकोण दिया है । भगवान अहंत की महती कृपा ही है यह कि इस शुभ प्रभात मे तुम्हारे वचनो में हमारी सुषुप्त आत्माएं जाग उठी है । तुम्हारी माता का भी यही विचार है कि अब तक हम लोग जिस प्रकार की गतिविधियो मे लगे रहे, वे हेय है और श्रेय को हम हेय समझते रहे । वत्स | तुमने हमारे मन को ज्ञानरश्मियो से आलोकित कर दिया है। इस आलोक मे हमे भी आत्मोत्थान का लक्ष्य ही दिखायी दे रहा है । अब तक मानव-जीवन के इस मूल्यवान अवसर का दुरुपयोग ही हम करते रहे हैं, किन्तु अब जीवन का प्रत्येक क्षण हम भी उसी चरम लक्ष्य की उपलब्धि के लिए लगा देंगे । तुम्हारे साथ हम भी दीक्षा ग्रहण करेंगे । आठो वधुओ के माता-पिता भी एक ही स्वर मे श्रेष्ठि ऋषभदत्त के इस विचार के महत्व को स्वीकार कर दीक्षा ग्रहण कर लेने की हार्दिक आकाक्षा व्यक्त करने लगे। सभी के मुख-मण्डल एक अद्भुत आभा से दमक उठे। उस आभा से मानो सारा कक्ष जगमगा उठा और वातावरण की बोझिलता तिरोहित हो गयी। अब सूर्योदय होने वाला था बाहर के अन्धकार के साथ-साथ श्रेष्ठि-दम्पतियो का भीतरी अन्धकार भी समाप्त हो गया । प्रभव को क्षमादान उसी समय प्रभव लौट आया। उसके साथ उसके दल के ।

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