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आचार्य प्रभव
आचार्य प्रभव जयपुर राज्य के कात्यायन गोत्रीय क्षत्रिय राजा विन्ध्य के वडे पुत्र थे । इनके लघु भाई का नाम सुप्रभ था । ईसा पूर्व ५५७ मे जन्मा राजकुमार प्रभव पिता द्वारा अपने छोटे भाई सुप्रभ को राज्य भार सौंपने के कारण रुष्ट हो जगलो मे रहने लगा
कुछ ही समय मे साहसी राजकुमार प्रभव विन्ध्या वी मे रहने वाले दस्युओ के साथ घुलमिलकर उन सबके नेता बन गये और अपने ५०० साथियो को लेकर प्रभव जहां-तहां चौर्य कर्म करने लगे । तालोद्घाटिनी, अवस्वापिनी बादि अनेक विद्याओ के ज्ञाता होने के कारण कोई भी उनको पकडने मे सफल न हो सका ।
राजगृह नगर के वैभव सम्पन्न ऋषभदत्त सेठ के घर पर जब प्रभव अपने साथियो के साथ चोरी हेतु उपस्थित हुआ तभी उसके समस्त साथियो के पैर जम्बू के भवन में स्थिर हो गये । प्रभव हतप्रभ हो समस्या के समाधान हेतु जम्बूकुमार के निकट उपस्थित हुआ । जम्बू की वैराग्यपरक वाणी ने उसके दिल के पापमय विचार बदल दिये और प्रभव अपने ५०० साथियो के सह जम्बूकुमार सहित आर्य सुवर्मा के चरणो मे दीक्षित हो गये ।
जम्नूस्वामी के पश्चात् भगवान महावीर के तृतीय पट्टघर का गौरवपूर्ण पद आचार्य प्रभव को प्राप्त हुआ । ३० वर्ष तक गृहस्थ पर्याय में और ७५ वर्ष तक श्रमण पर्याय में कुल १०५ वर्ष की आयुष्य पूर्ण कर आचार्य प्रभव स्वर्ग पधारे ।