Book Title: Mukti ka Amar Rahi Jambukumar
Author(s): Rajendramuni, Lakshman Bhatnagar
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 218
________________ २०६ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार की कल्पना नही की जा सकती - ठीक उसी प्रकार जीवन में सुख की स्थिति रहती है । ससार के प्रत्येक प्राणी को घोर यातनाएँ और पीडाएँ, कष्ट और दुख भोगने पडते है । हमारा मन ऐसी अवस्था मे आनन्द की कल्पना देने वाले मिथ्या सुखो की ओर आकर्षित होता है । ऐसा होना स्वाभाविक भी है, किन्तु मृग मरीचिका जैसे तृप्ति सुलभ नही करती, वैसे ही ये तथाकथित सुख आनन्द नही दे पाते । दुखो का भोगते हुए और सुखो की ओर ललचाते हुए माधारण मनुष्य अपना जीवन व्यर्थ ही खो देता है । यहाँ तक कि जीवन लीला की समापन वेला भी समीप आ जाती है और वह इस मूल्यवान जीवन के महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उपक्रम भी नही कर पाता है । ऐसी अवस्था मे उसके लिए घोर प्रायाश्चित्त ही शेष बच जाता है | कितनी कारुणिक दशा ऐसे मनुष्य की होती है । और इसका मूल कारण यही होता है कि समय रहते वह सचेत नही होता । तात ! हम ६ ही जनो को यह सौभाग्य प्राप्त हो गया है कि हम यथासमय ही महान उद्यम मे प्रवृत्त हो पा रहे है | आप सभी के लिए यह विषय हर्ष का होना चाहिए, गौरव का होना चाहिए | अब हम लोगो के लिए जो तथाकथित सुख मिथ्या हो चुके हैं, असार हो चुके हैं— उनकी ओर हमे पुन उन्मुख मत कीजिए | उनकी ओर आकर्षित होना हमारे लिए असम्भव है । अज्ञानतावश मनुष्य उस मृगी की भाँति व्यवहार करता है जो कस्तूरी की मधुर सुगन्धि से मुग्ध होकर उसे घास मे खोजती फिरती है और असफल होकर निराश हो जाती है । अज्ञजन भी 1

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