Book Title: Mukti ka Amar Rahi Jambukumar
Author(s): Rajendramuni, Lakshman Bhatnagar
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 223
________________ उपसंहार | २११ को सुनते रहे । विरक्त हृदय की यह विशेषता होती है कि प्रशसा से न वे प्रसन्न होते हैं और न ही निद्रा से क्रोधित होते है । प्रभव का प्रश्न अभी उनके समक्ष था ही । अत्यन्त विनय के साथ उन्होने कहा कि राजन् | जागतिक सम्बन्धो का परिहार कर चुकने पर कोई अभिलाषा वीतरागी मन मे नही रहती। मैं आपसे अपने लिए तो कुछ निवेदन कर ही नही सकता, कोई आवश्यकता भी प्रतीत नही होती । किन्तु यह युवक जो सामने खड़ा है, इसका नाम प्रभव है । राजकीय नियमानुसार यह दण्ड का भागी है ! चौर्य कर्म मे आजीवन रत रहने वाले इस युवक ने कैसे-कैसे अपराध किये होगे — इसकी कल्पना भी कठिन है । गतरात्रि यह इस भवन मे भी चोरी करने को हो आया था, किन्तु यहाँ आने पर मेरे साथ इसका जो वार्तालाप हुआ— उससे इसकी सोई हुई आत्मा जाग उठी है । इसे अपार आत्मग्लानि हुई और इसका हृदय परिवर्तन हो गया है । इसने अपने पाप कर्मों को ही नही त्याग दिया, अपितु यह सासारिक माया-मोह से भी विरक्त हो गया है । इसने साधक जीवन अपनाने की आकाक्षा व्यक्त की है ! इसके साथ खडे ये ५०० लोग इसके दल के ही सदस्य थे । ये सब के सब दीक्षा ग्रहण करने के अभिलापी हैं । इनकी यह कामना तभी पूर्ण हो सकती है, जब कि राज्य की ओर से इन्हे दण्डमुक्त घोषित किया जाय । राजन् ! मैं इनके लिए आपसे याचना करता हूँ कि कृपया प्रभव और उसके साथियो को क्षमा प्रदान करें । यह इनके जीवन मे एक महत्वपूर्ण अवसर है, इसका लाभ ये आपके क्षमादान से ही उठा सकते है ।

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