Book Title: Mukti ka Amar Rahi Jambukumar
Author(s): Rajendramuni, Lakshman Bhatnagar
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 215
________________ उपसंहार २०३ जम्बूकुमार ने झुककर अत्यन्त विनय के साथ सभी को नमन किया और उनके आशीर्वाद प्राप्त किये । अत्यन्त स्नेह के साथ श्रेष्ठि ऋषभदत्त ने पुत्र को अपने समीप बिठाया और कोमलता के साथ बोले कि वत्स | हम सभी तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे । हम समझते है कि हमारे भविष्य एव अन्य सभी विद्यमान परिस्थितियो को ध्यान में रखते हुए तुमने अपने भावी कार्यक्रम पर पुनर्विचार कर लिया होगा। साथ ही नववधुओ के साथ विचारो का आदान-प्रदान भी हुआ होगा। हम तुम्हारा निश्चय जानने के लिए अधीर हैं। हमे यह विश्वास भी है कि तुमने हमे बेसहारा छोड जाने का अपना विचार स्थगित कर दिया होगा। तुम ही तो हमारे सुखद भविष्य के अवलम्ब हो वत्स !! पिता की जिज्ञासा को तुष्ट करते हुए जम्बूकुमार ने गम्भीरता के साथ कहा कि हे तात ! गत रात्रि मैंने और आपकी कुलवधओ ने प्रचुर विचार-विमर्श किया । प्रारम्भ मे हममे मतभेद था। वधुएँ चाहती थी कि मैं गृहत्याग का विचार छोड़ दूं और भावी सुखो की कल्पना को पूर्ण करने के लिए वर्तमान सुखो की बलि न दं । मेरा पक्ष तो स्पष्ट था ही। मैंने अविलम्ब साधु जीवन अगीकार कर लेने के सकल्प की चर्चा की। मैंने अपनी धारणा को भली-भांति स्पष्ट करते हुए असार सुखो और विषयो की हानियो से उन्हे परिचित कराया और मानव जीवन के परम और चरम लक्ष्य की व्याख्या करते हुए उन्हे समझाया कि मानवदेह धारण का प्रयोजन ही मोक्ष के रूप मे उस लक्ष्य को प्राप्त लेना होता है । मैंने उम लक्ष्य की ओर अपनी दृढ उन्मुखता

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