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ललितकुमार की कथा | १६६
के लिए प्रयत्ल करें, मोक्ष के लिए साधना करे और दुखद भवबन्धनो से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जायँ । यही सब कुछ भलीमांति और सभी दृष्टियो से सोचकर मैंने निर्णय किया है--विरक्त हो जाने का। मुझे विश्वास है कि अब तुम्हारी धारणा मे मै एकागी सत्यवादी या दुराग्रही नही रहा । मेरा तो जयश्री ! तुम्हारे लिए भी यही आग्रह है कि अनुरक्ति और विरक्ति दोनो पक्षों की लाभ-हानि का अध्ययन करो और यदि तुम्हे प्रतीत हो कि सुखो मे असारता के अतिरिक्त कुछ भी नही है, तो तुम भी उन्हे त्याज्य मान लो। इसी मे तुम्हारा कल्याण है।
__ अब तक जम्बूकुमार के इन विचारो से जयश्री का मन प्रभावित हो गया था। वह अपने विचारो मे मिथ्यात्व का अनुभव करने लगी थी और कुमार के विचारो मे सारहीनता के भाव की जो कल्पना उसने कर रखी थी-यह भी कुमार की वाणी के वेग मे प्रवाहित हो गयी । जयश्री ने जम्बूकुमार के दृष्टिकोण के साथ सहमति व्यक्त करते हुए उनके चरणो मे प्रणाम किया।