Book Title: Mukti ka Amar Rahi Jambukumar
Author(s): Rajendramuni, Lakshman Bhatnagar
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 209
________________ ललितकुमार को कथा | १६७ भी नही कर पाये । वे जब इस प्रकार आनन्द-जगत् मे विहार कर रहे थे, तभी दासी ने आकर सूचना दी कि महाराज पधार रहे हैं । दोनो का वह सुख-स्वप्न मानो हठात् ही टूट कर चूर-चूर हो गया । ललितकुमार भय से काँप उठा। उसके चहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी। गिड़गिड़ाकर वह रानी से प्रार्थना करने लगा कि मुझे कही छिपाओ, महाराज मुझे जीवित नही छोडेंगे । रानी के लिए भी सकट कुछ कम नहीं था। किन्तु वह करती तो क्या करती । सकट की घड़ी अप्रत्याशित रूप से ऐसी आ खडी हुई थी कि कुछ भी सोच-विचार का अवसर नहीं मिल पा रहा था । ललितकुमार को अब न तो कक्ष से बाहर भेजा जा सकता था, न कक्ष मे ऐसा कोई स्थान था जहाँ उसे आश्रय दिया जा सके। बडी विषम परिस्थिति थी । अचानक रानी को एक उपाय सूझा । राजभवन के पीछे शौचालय मे उसे छिपा दिया गया और उस - पर ताला लगवा दिया। बिना सोचे-विचारे जो सुख के लोभ मे ग्रस्त हो जाता है, सकट की घडी मे उसे सब कुछ करने को तत्पर हो ही जाना पड़ता है। ललितकुमार को वही छिपना पडा । जयश्री ! उसकी बड़ी ही दुर्गति हुई । शौचालय की दुर्गन्ध से वह कष्टित होने लगा। भूख-प्यास से वह अधीर हो उठा । इधर रानी को इस बात का अवसर ही नही मिला कि उसे बाहर निकाल सके। ६ मास एव ८ दिवस तक उसे शौचालय में रहना पड़ा । अन्त मे एक दिवस पानी के वेग से वह गिर गया । मेहतरानी सफाई करने पहुंची। उसने श्रेष्ठि-पुत्र को देखा तो आश्चर्य का पार न रहा । शीघ्र गति से दौडकर वह सेठ को सूचना

Loading...

Page Navigation
1 ... 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245