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ललितकुमार को कथा | १६५ मे स्थिर कर लिया है । तुम्हारा अनुमान भ्रमपूर्ण है जयश्री | कि किसी एक पक्ष मे मैं अकारण ही अहित मानकर अन्य पक्ष के प्रति बिना किसी आधार के झुक गया हूँ। ये विषय-वासनाएँ और माया-मोह निश्चित ही त्याज्य है । जो इनके लोम मे पडकर सत्यपक्ष का विचार ही नही कर पाता; धर्म, नियम, सयम, विराग आदि का पालन नहीं कर पाता; आत्म-कल्याण के लिए प्रयत्नशील नही हो पाता-उसे भयानक दुष्परिणाम भोगने पडते हैइसमे मुझे तनिक भी सन्देह नही है । तुम्हे भी उचित-अनुचित का निर्णय स्वय करना चाहिए और गम्भीरता से, तटस्थ बुद्धि से सोचना चाहिए। यदि तुमने ऐसा किया तो सासारिक मोह की असारता और उसके घातक स्वरूप से तुम अपरिचित नही रह पाओगी। सुनो, मैं तुम्हे इस सन्दर्भ मे ललितकुमार की कथा सुनाता हूँ।
जयश्री को पुन सम्बोधित करते हुए कुमार ने कहा कि ललितकुमार का जैसा नाम था वैसा ही उसका व्यक्तित्व भी था । बड़ा ही रूपवान, कोमल और आकर्षक था वह । जो कोई उसे देखता वह उसके मोहक रूप से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता था। सयोग से वह एक सम्पन्न परिवार का सदस्य था, अत. उसके वैमव ने उसे विलास की असीमित सुविधाएँ दे रखी थी । परिणामतः भांति-भांति के साधनो द्वारा वह अपने व्यक्तित्व के उस प्रभाव को और भी अधिक अभिवद्धित रखता था । युवतियाँ उसके प्रति सम्मोहित सी रहती थी।
जयश्री । यह ललितकुमार तन से जितना अधिक सुन्दर था