Book Title: Mukti ka Amar Rahi Jambukumar
Author(s): Rajendramuni, Lakshman Bhatnagar
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 206
________________ १६४ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार । उचित-अनुचित प्रयत्नो मे व्यस्त हो जाता है । परिणामत उसके मानसिक जगत मे एक व्यग्रता और अशान्ति छा जाती है जो उसे विद्यमान सुखो से भी लाभान्वित नही होने देती । जयश्री ! इसके अतिरिक्त यह भी तो एक दृढ सत्य है कि ये सुख तो सुख की मात्र छाया है । जिस प्रकार स्वच्छन्द जल-विहार करती हुई मछली पानी मे अपना खाद्य देखकर ललचा उठती है और उसकी प्राप्ति की कामना से उधर लपकती भी है। उस खाद्य को जब वह सेवन करने लगती है तो उसके जवडे मे वह कांटा फंस जाता जाता है जो उस सुन्दर, सरस खाद्य के भीतर छिपा हुआ था। असह्य वेदना से वह छटपटा जाती है और यही नही डोर के सहारे शिकारी उसे पानी से बाहर खीच लेता है । मछली तडपतडप कर प्राण त्याग देती है। यदि वह खाद्य (सुख) की ओर आकर्षित न हुई होती तो क्या उसकी यह दुर्दशा होती । प्रत्येक सुख मे दु ख का मूल छिपा रहता है । सुख तो शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और दुख का यही मूल अकुरित, विकसित, पल्लवित और फलित होता रहता है । ऐसे दुखद सुख भी भला कमी वरेण्य हो सकते हैं। मृगी के लिए वीणा का मधुर सगीत एक सुख है, उसमे मस्त होकर वह सुधबुध खोकर अचचल बैठ जाती है, किन्तु क्या यही सगीत उसके लिए घातक नही हो जाता ! इन सुखो के छलावो से मनुष्य जितना शीघ्र सावधान हो जाय-उतना ही श्रेयस्कर है । इस सासारिक छलावे से मुक्त होकर मनुष्य को वास्तविक और अनन्त सुख-मोक्ष के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। यह तथ्य मैने पूरी गवेषणा और सोच-विचार के बाद अपने चित्त

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