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६६ | मुक्ति का अमर राहो : जम्बूकुमार शीघ्र ही स्वग्राम लौट आया और आते समय वह अपने साथ बोने के लिए ईख का एक भारी गट्ठर भी ले आया था।
वग ने मार्ग मे देखा कि उसके ग्रामवामियो के खेतो मे वाजरे और मूंग-मोठ आदि की फसल लहग रही है । उमने किसानो को बुला-बुलाकर नई फसल ईख के विषय में बताया, उसके रस और रस से बने गुड की मधुरता से उन्हे परिचित कराने लगा । उसने कहा कि अब तक हम लोग बाजरे की खेती मे व्यर्थ ही समय और शक्ति का दुरुपयोग करते रहे है । आओ, अव हम ईख की खेती करें। वाजरे जैसी फसल मे धरा ही क्या है । छोड़ो इस खेती को और लो, मैं तुम्हे गन्ने के बीज देता हूंयह मीठी फसल उगाओ और जीवन का आनन्द भोगो । काट फैको इस अधपकी वेकार की बाजरे की फसल को। उसकी बात पर किसी ने कान नही दिया । भावी, अनिश्चित लाभ की आशा मे कौन हाथ मे आयी सम्पदा को जाने देता है। अन्य किसान ऐसी जोखिम उठाने की मूर्खता क्यो करते । वग को इन लोगो की नादानी पर बडा तरस आया। वह इन किसानो को अपने पक्ष मे करने की इस विफलता पर खिन्न हो उठा और सोचने लगा कि मेरे खेत तो मेरे अपने है। उनमे बोने से मुझे कौन रोकेगा । फिर जब मेरे खेत की ईख गुड उगलने लगेगी तो ये मूर्ख अपनी भूल परं पछतायेंगे ।
अपने घर पहुंचकर उसने स्वजनो से सारी बात बताई और आग्रह करने लगा कि आज ही बाजरे की फसल से खेतों को