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१६० । मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार __ था, किन्तु जीविकोपार्जन मे उसकी तनिक भी रुचि नही थी।
बडे ही अलमस्त स्वभाव का था । रसीले गीत गाते रहना और भंग पीकर उपवन मे पडे रहना-बस यही उसकी दिनचर्या थी। पिता जीवित थे, अत. उसे कोई चिन्ता थी। दोनो समय भोजन मिल ही जाता था। धीरे-धीरे वह बडा ही प्रमादी और अनुद्यमी हो गया था । पुत्र के ऐसे कुलक्षण देखकर मातापिता बडे चिन्तित रहा करते थे। अपनी एकमात्र सन्तान होने के कारण उन्होंने उसे बड़े वात्सल्य के साथ बड़ा किया था, किन्तु उसके भावी अमगल के चिह्न देखकर वे हताश होने लगे। पिताजी कठोरतापूर्वक उसे सन्मार्ग पर लाना चाहते थे-उसे प्रताडित करते, डांट-फटकार बताते । माता अत्यन्त स्नेह और कोमलता के साथ प्रबोधन देती कि बेटा ! इस प्रकार कैसे काम चलेगा ? पेट भरने के लिए अन्न तो चाहिए ही और इसके लिए किसी रोजगार मे तुमको लगना चाहिए। अब तुम वच्चे नहीं हो । अपना सारा जीवन तो तुम्हे स्वय ही व्यतीत करना होगा। हम भला कब तक बने रहेगे ? सामने तो ब्राह्मण पुत्र यही कहता कि हाँ, अब मैं अर्थोपार्जन के किसी कार्य मे लग जाऊंगा। किन्तु 'कुछ ही पलो में वह अपने वचनो को भी विस्मृत कर देता था। माँ के मृदुल व्यवहार और पिता के कठोर अनुशासन की कोई भी अनुकूल प्रतिक्रिया उस पर नही हुई। उसकी जीवन पद्धति मे कोई परिवर्तन नही आया ।
एक दिन अनायास ही वृद्ध पिता का स्वर्गवास हो गया। असहाय विधवा ब्राह्मणी क्रन्दन करने लगी। पति का आश्रय तो