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दुराग्रही ब्राह्मण की कथा | १६१
टूट ही गया था और पुत्र तो स्वयं ही किसी के आश्रित रहने जैसा था । ऐसी अवस्था मे ब्राह्मणी को चहुं ओर घोर अन्धकार दिखायी देने लगा । एक दिन माता ने पुत्र को अपने पास बिठाकर फिर समझाया कि बेटा । अब हमारे वे दिन नही रहे । तेरे पिताजी का स्वर्गवास हो जाने पर अब हमारे लिए आजीविका का कोई साधन शेष नही रहा है । मेरे पास कोई सम्पत्ति भी ऐसी नही है कि कुछ दिन हमारा निर्वाह हो सके । तू स्वय ही सोच कि क्या इस तरह बेकार घूमने-फिरने से ही तू गृहस्थी के दायित्वो को निभा लेगा । अब तो तुझ पर सारी जिम्मेदारियां आ गयी हे । तुझे किसी-न-किसी काम मे लग जाना चाहिए, जिससे हमे दिन मे दो वक्त का भोजन तो मिलता रह सके ।
माता के कथन का पुत्र पर पहली बार वास्तविक प्रभाव हुआ । वह मन-ही-मन दृढता के साथ सोचने लगा कि अब वास्तव मे मुझे कुछ उपार्जन करना ही चाहिए । वह तनिक स्वस्थ और शान्त मन से यह सोचने लगा कि क्या कुछ किया जा सकता है । उसने अब तक इस दिशा मे सोचा ही नही था । अतः इन बातो से वह सर्वथा अपरिचित था कि कही नौकरी पाने के लिए क्या करना पडता है ? अथवा किसी काम मे सफलता के लिए व्यक्ति मे किन-किन गुणो का होना अनिवार्य होता है ? कुछ पल मौन रहकर वह यही सब कुछ सोचता रहा और तब उसने माता को आश्वस्त किया कि वह निश्चय ही अब सारी जिम्मेदारियो को निभायेगा और जीविकोपार्जन के लिए कोई काम-धन्धा करेगा । अपनी अनभिज्ञता व्यक्त करते हुए ब्राह्मण पुत्र ने अपनी माता से