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सुबुद्धि और राम-राम मित्र की कथा | १७६
नित्यमित्र, पर्वमित्र और राम-राम मित्र । नित्यमित्र मानता था वह अपने शरीर को और अपनी अर्धांगिनी अर्थात् धर्मपत्नी को, जिनका सुख-दुःख एक ही हुआ करता है। एक का सुख दूसरे के लिए दु ख का कारण नही हो सकता और एक को दुखी पाकर दूसरा कभी सुखी नही रह सकता । यही नही, नित्य ही निर्वाहित होती रहने वाली मैत्री के अधीन दोनो एक-दूसरे की सहायता के लिए भी वचनबद्ध होते है। अन्य स्वजन-परिजनो, सहयोगियो, मित्रो आदि को वह पर्वमित्र मानता था जिनकी मैत्री का आभास समय-समय पर, उचित अवसरो पर ही होता था। इसके अतिरिक्त ऐसे भी व्यक्ति होते है जिनके साथ का परिचय केवल अभिवादन विनिमय 'राम-राम' तक ही सीमित रहता है ।
हाँ तो रूपश्री ! जब सुबुद्धि ने उस आधी रात मे अपने घर का द्वार खटखटाया तो मीठी नीद का आनन्द लेती हुई उसकी पत्नी को बड़ा रोष आया। यह आधी रात को कौन आ मरा..... .है कौन यह........आदि बड़बड़ाती हुई जब उसने द्वार खोला तो अपने पति को खडा देखकर उसकी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे ही रह गयी । वह मात्र इतना ही कह पाई कि तुम यहाँ क्या लेने आये हो ? भगवान के लिए यहाँ से . । बीच ही मे सुबुद्धि बोल पड़ा कि प्रिये । तुम मेरी नित्यमित्र हो । इस आडे समय मे मै तुम से ही तो सहायता की अपेक्षा रख सकता है। राज कर्मचारी मेरी खोज मे हैं। वे मुझे पकडकर शूली पर चढा देना चाहते हैं, किन्तु मैं मरना नहीं चाहता . प्रिये ! मै मरना नहीं चाहता। मैं तुम से अपने प्राणो की भीख