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१८० | मुक्ति का अमर नही : सम्मुमार मांगता हूँ। मेरी रक्षा करो। मुझे परमेहमी तुम पर मन्देह भी नहीं कर पाएगा ।पनि दोकाना गर देती हुई पत्नी कहने लगी जिनमो अपने काम माती दण्ड मिला है.-उने तुम ही भोगी। मो और मेरे बन्नीगे उसमे भागीदार मत बनायो । अपने दुर्भाग्य रीटाया मे तुम लोगो का जीवन दुखमय बनाना चाहते हो, लिममा नदी होने दूंगी । तुम्हे आश्रय देकर मैं गजा पो कोपभाजन नहीं बनना चाहती। अगर हमारी सम्पत्ति राजा ने छीन ली तो हमारा निर्वाह कैसे होगा ? नही . ...नहीं .... उस पर में तुम्हें नम: नही मिलेगी । और गेप के माय पत्नी ने पासटरगेद्वार बन्द कर लिया और कुडी चढा ली। पाटी को भावान ने सुबुद्धि मन मे वितृष्णा भर दी। इस पवित्र मित्रता का आधार भी पवन स्वार्थ पूति है-यह उसने कभी सोचा भी नहीं था। उसने अपने नित्यमित्र द्वारा ऐसे उपेक्षापूर्ण व्यवहार की कल्पना भी नहीं की श्री । घोर दुख से वह क्षण मान ही में जर्जर हो गया। उसके चरणो मे शक्ति नही रह गयी थी-आगे बढ़ने की किन्तु अन्य चारा ही क्या था । वह निराश होकर वहां से हट गया।
तब वह एक-एक करके अपने अनेक अन्य मित्रो-परिचितो के यहां गया । सभी ने उसे निराश किया । कोई भी उसकी सहायता करने, उसे अपने यहाँ आश्रय देने को तत्पर नहीं हुआ। सभी उसके सुख के ही साथी थे--पर्वमित्र जो ठहरे । दुर्भाग्य के समय मे सुबुद्धि का साथ देकर कोई भी अपने लिए मुसीवत खडी कर लेने का साहस नही कर सका । सच्चा मित्र तो मित्र की