________________
१८६ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार दुराग्रह भरा हुआ है और इसी कारण अपने विचारो के अतिरिक्त
और किसी के विचार में आपको मत्य अथवा औचित्य प्रतीत ही नहीं होता । आपने अपने माता-पिता के आग्रह को भी अस्वीकार कर दिया और गृह-त्याग के निश्चय पर आप अटल है। अन्य स्वजन-परिजनो ने भी तर्क प्रस्तुत किये और अभी मेरी ७ वहनें भी प्रयत्न कर चुकी है, किन्तु ऐसा आभास होता है कि स्वामी ! आपको अपने दृष्टिकोण के प्रति मोह हो गया है । यह मोह आप को उचित निष्कर्ष तक नही पहंचने देता है । यह धारणा छोड़िये कि अन्य किसी की वाणी मे सार तत्त्व है ही नही । तभी.... तभी आप मगलदायी निश्चय कर पायेगे । आपके इस दुराग्रह को देख कर मुझे एक कहानी स्मरण आ गयी है। यदि आप अनुमति दे तो, वह कहानी सुनाऊँ।
जम्बूकुमार ने स्वीकृतिसूचक सिर हिलाते हुए कहा जयश्री ! सुनाओ, मैं ध्यान से सुनूंगा और उसके पश्चात ही मैं अपना मत व्यक्त करूंगा । जयश्री ने उत्साहित होकर कथा आरम्भ की
हे स्वामी सुदीर्घ अतीत की बात है, एक नगर था-श्रीपुर । श्रीपुर का राजा वडा नैष्ठिक था, धर्मानुरागी था । वह प्रजावत्सल और न्याय प्रिय राजा था । उसके नित्यनियम का अनिवार्य अग था-धर्म-कथाओ का श्रवण । जब तक वह कथा नहीं सुन लेता, तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करता था। हाँ, उसके कथाश्रवण के सम्बन्ध मे एक और उल्लेखनीय विशेषता थी कि प्रतिदिन वह नये-नये कथावाचको को निमन्त्रित करता था। इस