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सुबुद्धि और राम-राम मित्र की कथा | १७७
तो उस चरम स्थिति को प्राप्त कर लेने का अभिलापी हूँ जो चिर शान्ति और सुख की दात्री है। मेरे इस चुनाव को किसी भी प्रकार तो बाज के चुनाव से समकक्षता नहीं दी जा सकती । फिर उसकी दुर्दशा का चित्रण कर तुम मुझे भयभीत करने का प्रयत्न क्यो कर रही हो ? मेरा चुनाव पवित्र है और इन प्रयत्नो के परिणाम भी निश्चित ही सुखद और सौभाग्यपूर्ण होगे, मगलकारी होंगे । तुम मुझे इस मार्ग से मोडकर पुन सासारिकता की ओर ले, जाना चाहती हो, किन्तु रूपश्री | मुझे जीवन के उस प्रवचनापूर्ण स्वरूप मे रस नही आता । ये सासारिक सुख आत्मा के लिए घातक है । ससार मे कोई भी किसी का नहीं होता । मातापिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी, स्वजन-परिजन किसी को किसी के हित की कामना नहीं होती। सभी तो यहाँ स्वकेन्द्रित है। , सभी अपने-अपने ही लाभ के लिए, स्वार्थ के लिए इन सम्बन्धो के निर्वाह मे लगे रहते है और न, तो मेरे मन मे किसी स्वार्थपूर्ति की कामना है, न मैं किसी से छले जाने के लिए तत्पर हूं। ऐसी स्थिति में मैं उस त्यक्त और दूषित जागतिक जीवन की ओर कैसे उन्मुख हो सकता हूँ । लोक व्यवहार की इस पद्धति के बारे मे मैं रूपश्री । तुम्हे एक कथा के माध्यम से आश्वस्त कराना चाहता हूँ, सुनो
किसी समय अत्यन्त उदार विचारो और परिपक्व बुद्धि का एक व्यक्ति था जो सदा सत्कर्मों में ही प्रवृत्त रहा करता था। उसका नाम था-सुबुद्धि । सुबुद्धि राजा अजितशत्रु का प्रधान अमात्य था। वह अपने दायित्वो के निर्वाह मे सदा जागरूक रहा करता था ।