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दुस्साहसी बाज की कथा | १७३
है । आपने आहार को पाकर उसका मन ललक उठा । बड़ो सावधानी से वह अपनी पैनी चोच का उपयोग कर सिह के दॉतो मे फैसे मांस को निकाल-निकाल कर खाने लगा । उसे बडा आनन्द आया और विशेषता यह थी कि इस आहार के लिए उसे कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ा-न झपटना पड़ा और न प्राणियो का शिकार करना पडा । उस आलसी के लिए तो मानो नौ निधियाँ ही मिल गयी। वह बड़ा प्रसन्न हुआ। अन्धे को एक आँख के सिवाय और क्या चाहिए ।
अब तो प्रतिदिन का उसका यही क्रम हो गया था। शेर तो बड़ा पराक्रमी था। रात्रि को वह शिकार की खोज पर निकला करता था। मनोनुकूल आखेट और आहार करता और दिन भर इस कन्दरा मे विश्राम करता और बाज उसके दांतो मे लगे मांस को निकाल-निकाल कर अपना पेट भर लिया करता। किन्तु कितना जोखिम का काम था यह । और बाज था कि इस खतरे की ओर उसने कभी ध्यान ही नही दिया कि शेर कभी भी उसी को चटनी बना सकता है । अब बाज भी प्राय. सुस्ताता रहता । उसके अन्य मित्र पक्षियो ने देखा कि आजकल वह न शिकार करता है, न ही वह उनके साथ रहता है। कई मित्रो ने इसके कारण की खोज की। जब उन्हे 'बाज के इस नये कार्यक्रम की जानकारी हुई, तो उन्होने उसे समझाया कि क्यो व्यर्थ ही मृत्यु को निमन्त्रित करता है । अब भी तुझ मे पर्याप्त शक्ति है । अपना शिकार स्वय कियां कर और शेर के मुंह में अपना मुँह मत डाल । शेर तो साक्षात् मौत का अवतार है। उससे दूर