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१७० | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
वडा महत्व रखता है । मैंने इससे बहुत कुछ मीखा है । क्या इस कथा को हृदयगम करके भी मैं अपनी आत्मा के साथ निष्ठाहीनता का व्यवहार कर मकता हूँ । जव मेरा मन, मेरी आत्मा इन सासारिक सुखो से दूर रहने का आदेश दे रही है, तो भला मैं इनकी ओर कैसे बढ सकता हूँ । मुझे दृढ विश्वास है कि जो मार्ग मैंने चुना है, वही मेरे लिए कल्याणकारी है । कनकश्री मेरा तो तुम्हारे लिए भी यही आग्रह है कि इन मिथ्या भौतिक सुखो के जजाल से मुक्त होकर मोक्ष के उस अक्षुण्ण सुख के लिए लो लगा लो, और उसे प्राप्त कर अपना मानव-जीवन सार्थक बनाओ ।
इतना कहकर जम्बूकुमार तो मौन हो गये, किन्तु कनकश्री की आत्मा मे द्वन्द्व मच गया। वह अपने पूर्वमत पर दृढ नही रह सकी । उसने सोचा कि सुमार्ग पर अग्रसर होने मे जम्बूकुमार के लिए बाधक बनने का प्रयत्न करना भी उसके लिए पाप है | सच्चे ज्ञान के आलोक से उसका मन दीप्त होने लगा और वह कुमार की प्रेरणादायिनी वाणी से प्रभाव से नतमस्तक हो गयी । कनकश्री मन-ही-मन निश्चय करने लगी कि स्वामी का मार्ग ही श्रेय - स्कर है और मुझे भी उनका अनुसरण करना चाहिए ।