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११ : दुराग्रही ब्राह्मण की कथा : कनकश्री का प्रयत्न
नभसेना के इस प्रकार हार स्वीकार कर लेने और उसके मस्तक नत कर लेने पर अतुलित गर्व के साथ कनकश्री की ग्रीवा उन्नत हो गयी । उसने नभसेना को उसके पराभव पर उपालम्भ देना व्यर्थ समझकर सीधा जम्बूकुमार को ही सम्बोधित किया और कहने लगी कि स्वामी । अब वारी मेरी है । मेरा नाम तो आप सुन ही चुके होगे - कनकश्री है नाम मेरा ! यह कहते कहते उसके मुख पर कनक - दीप्ति ही विकीर्ण हो गयी, मुझसे पार पाना कठिन रहेगा आपके लिए । बेचारी नभसेना आपको प्रत्युत्तर 'नही दे पायी, किन्तु तनिक यह तो स्पष्ट कीजिए कि आपको विरक्ति, साधना आदि किस प्रयोजन के लिए प्रिय हो गयी है । क्या आप इस नवीन मार्ग पर गतिशील होकर सुख-लक्ष्य को प्राप्त नही करना चाहते है ? फिर यह कैसा विरोध ? आप भी सुख-लाभ की कामना करते है, हम भी आपसे उपलब्ध सुखोपभोग करन के लिए ही आग्रह कर रही है । इन्हे त्यागने के लिए जो उद्दाम हठ आपके चित्त मे वल खा रही है – हम उसी को निर्बल कर देना चाहती है । कोई भी विवेकशील व्यक्ति यह समझ सकता है कि हमे जिसकी चाह है, वही जब हमारे लिए उपलब्ध है, तो हमे उसका भोग करना चाहिए। यदि इसके स्थान पर हम