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क्षेत्रकुटुम्बी किसान की कथा | १३५
गया । वह गाँव मे किसी को मुंह दिखाने योग्य भी नही रहा । बड़ी दुर्दशा हो गयी थी उसकी । अन्तत उसे वह गाँव छोडकर चले जाने पर विवश होना पड़ा। ___ अन्त मे कनकसेना ने कहा कि स्वामी ! क्षेत्रकुटुम्बी का यह पतन, यह दुर्दशा इसी कारण हुई कि वह तुरन्त ही उन्नति के शिखर पर पहुंच जाना चाहता था । जो कुछ उसके पास था, उससे वह सन्तुष्ट नही था और क्रमश. वृद्धि होती चली जाययह भी उस अधीर के लिए अपर्याप्त था। इस उतावली के कारण ही उसको सब कुछ खो देना पड़ा और वह घोर दुखी होकर अपनी उस मनोवृत्ति पर पछताता रहा । कनकसेना ने पुन अपने पति को सम्बोधित करते हुए कहा कि स्वामी | आपके हित के लिए ही मैने क्षेत्रकुटुम्बी की यह कथा आपको सुनाई है। इससे अपने भावी जीवन का रूप निर्धारित करने में सहायता लीजिए । मेरा विश्वास है कि आप क्षेत्रकुटुम्बी के समान अपने भविष्य को नहीं ढालना चाहेगे । आपका हित इसी मे है कि जो सुख-सुविधाएं उपलब्ध हैं, उन पर सन्तोष करें और क्षेत्रकुटुम्बी की भाँति एकदम ही कुछ-का-कुछ होने जाने की भ्रामक धारणा को त्याग दे ।
अपना विवेचन समाप्त करते-करते कनकसेना की मुखश्री आसन्न सफलता के श्रेय से सयुक्त होकर दीप्तिमान हो उठी। उसने जम्बूकुमार पर अपने प्रयत्ल से हुए प्रभाव का अध्ययन करने के लिए उनकी ओर पुन दृष्टिपात किया और एक सन्तोष की सांस ली। कुमार की मुखमुद्रा अब भी पूर्ववत् निर्विकार ही थी।