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प्यासे बन्दर की कथा | १३७
उन्मुख होना क्या मेरे लिए सम्भव रह गया है ! कनकसेना ! इन सुखरूपी छलावो से मुक्त होकर मैं वास्तविक सुख को प्राप्त करने की साध रखता हूँ, उस सुख को प्राप्त करने का मार्ग ही तो वह साधना है, जिसमे मैं प्रवृत्त होना चाहता हूं।
जम्बूकुमार ने पुन कनकसेना को सम्बोधित करते हुए कहा कि यह मात्र मेरे लिए ही नहीं प्राणिमात्र के लिए सत्य है । यही वह ज्ञान है जिसे प्राप्त कर मनुष्य आत्म-कल्याण के लिए प्रेरित हो सकता है। इन सुखो के मिथ्या रूप मे न पडकर इनके परित्याग के लिए तत्पर रहने की प्रवृत्ति सभी के लिए मगलकारी रहती है-इसमें किसी को तनिक भी सन्देह नहीं करना चाहिए । स्पष्टोक्ति यह है कनकसेना | कि तुम भी इन सासारिक सुखो के प्रवचनापूर्ण स्वरूप को, इनकी घोर दुखद परिणति को समझ नही पायी हो। इसे समझना तुम्हारे लिए भी हितकर होगा। सुनो, मै तुम्हे इसी उद्देश्य से प्यासे बन्दर की कथा सुनाता हूँ।
कनकसेना अब तक कुमार का अभिप्राय समझ चुकी थी और वह उसमे कुछ-कुछ यथार्थ का अनुभव भी करने लगी थी। इस सारे तथ्य को भली-भाँति हृदयगम कर लेने की कामना से वह दत्तचित्त होकर इस कथा का श्रवण करने लगी। कुमार ने कथारम्भ किया
___ कनकसेना | एक बहुत ही रमणीक सघन वन था । प्राकृतिक शोभा का कोष ही था वह । भॉति-भांति के द्रम-लतादि मे विभषित इस कानन मे फल-फूलो की भी प्रचुरता थी। निर्मल जल से भरे सुन्दर जलाशयो और झरनो से वन का वैभव और