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१५२ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूफूमार
धरती की ओर थी, मस्तक झुका हुआ था। कुमार की वाणी का गहन प्रभाव उसके चित्त पर था । वह स्वय सुखो की वास्तविकता से अव परिचित हो गयी थी। कुमार के सन्मार्ग पर वढने मे जो रचमात्र सी बाधा प्रस्तुत करने का प्रयत्न उसने किया था, उसे वह अपनी कुचेष्टा अनुभव करने लगी थी। उसके उद्दीप्त मन मे विरक्ति का भाव अंगडाइयाँ मे रहा था । जागतिक मोह और विषय कामनाओ मे उसे थोथापन लगने लगा था और उसके मन मे तीव्र विकर्पण इनके प्रति उत्पन्न हो गया था। क्षेत्रकुटुम्बी किसान की कथा समाप्त करते-करते उसकी मानसिक दशा कुछ और ही थी और अब वह कुछ और ही हो गयी थी। कनकसेना का जम्बूकुमार की वाणी से हृदय परिवर्तन हो गया था । प्रकटत वह मात्र इतना ही कह पायी कि हे मेरे स्वामी । मैं आपके अभीष्ट मार्ग मे अवरोध नही बनूंगी। और उमने कुमार के चरणो मे नमन किया । ऐसा करके वह स्वय को धन्य समझने लगी।