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__१४८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
उसके घर मे भी धन सगृहीत होने लगा। इसे देखकर बुद्धि के मन मे प्रतिस्पर्धा का भाव उमडा । वह यह कैसे सहन कर लेती कि सिद्धि उसकी अपेक्षा अधिक वैभवशालिनी हो जाय । उसने फिर युक्ति से काम लिया।
बुद्धि ने मन्त्र का जाप पुन प्रारम्भ कर दिया। अबकी बार उसका जाप अधिक निष्ठा और एकाग्रता से होने लगा। परिणामत देव पुन. यथासमय प्रत्यक्ष हुए। इस बार बुद्धि ने उनसे प्रार्थना की कि कृपाकर मुझे सिद्धि की अपेक्षा दुगुना धन प्राप्त करने का वर प्रदान कीजिए। बुद्धि को अभीष्ट वरदान प्राप्त हो गया और उसके पास सम्पत्ति की प्रचुरता होने लगी। कुछ ही समय मे उसका धन सिद्धि की अपेक्षा दुगुना हो गया । तब उसे सन्तोष की साँस आयी, किन्तु सिद्धि के तो सीने पर साँप ही लेट गया । वह भी भला बुद्धि से कव पीछे रहने वाली थी। उसने भी पुन. मन्त्र जाप से देव को प्रसन्न कर बुद्धि से दुगुना धन प्राप्त कर लिया। इसके लोभ का तो कोई आरपार था ही नही । प्रचुर धन भी (जो उसे प्राप्त हो जाता था) उसके लिए तुच्छ रह जाता था, नगण्य रह जाता था। उसकी लोलुपता "और · और" की ही रट लगाती रहती।
इस प्रकार सिद्धि और बुद्धि की यह होड चलती रही.... चलती रही। किसी को भी प्राप्त धन पर सन्तोष नही होता था। दोनो एक-दूसरे को पीछे छोड देने की धुन मे लगी हुई थी। एक दिन बुद्धि के मन मे एक कुचक्र माया । दुर्विचार को आश्रय