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१४६ / मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
प्रवल प्रेरणा जागी । महात्मा ने बुद्धि को एक मन्त्र बताया और कहा कि इसका निरन्तर जाप करती रहो। इसकी कृपा से तुम्हारे सारे क्लेश कट जायेगे ।
निदान, हे स्वामी ! उस अभागी ने महात्मा के उपदेशानुसार मन्त्र का जाप आरम्भ कर दिया। कोई छह महीने व्यतीत हुए होगे कि उसकी आराधना सफल हुई और देव ने प्रकट होकर बुद्धि को दर्शन दिये । बुद्धि तो निहाल हो गई, अपना जन्म वह सफल मानने लगी। विघ्न विनाशक देव ने बुद्धि से कहा कि हम तेरी भक्ति-भावना से बडे प्रसन्न है । यदि तू कोई वरदान माँगना चाहे तो माँग ले । हम तेरी इच्छा को पूर्ण करना चाहते है । वुद्धि का मन तो धन मे ही लगा हुआ था। उसने तुरन्त निवेदन किया कि हे देव ! आप तो मुझे बस यह वरदान दीजिए कि मुझे नित्य एक स्वर्ण मुद्रा प्राप्त होती रहे । देव ने 'तथास्तु' कहकर बुद्धि को आशीर्वाद प्रदान किया और अन्तर्धान हो गये।
अव तो बुद्धि को प्रतिदिन ही एक-एक स्वर्ण मुद्रा की प्राप्ति होने लगी। धीरे-धीरे उसकी अभाव की स्थिति समाप्त होने लगी, यही नही सुख-वृद्धि के साथ उसकी सम्पत्ति वृद्धि भी होने लगी। वह महात्माजी और देव का लाख-लाख उपकार मानने लगी।
- अव बुद्धि ने तो कण्डे थापने का कार्य छोड दिया था, उसे इसकी आवश्यकता ही नही थी, किन्तु वेचारी सिद्धि तो अब भी विपन्नावस्था मे थी । उसका तो यही रोजगार था। सिद्धि को