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रानी कपिला की कथा | १११
था । रानी भी उसके प्रति अनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त करती जा रही थी। मधुर मुस्कान बार-बार उसके अधर पल्लवों पर प्रसारित हो जाया करती थी। किन्तु क्या उसका नेह-प्रदर्शन वास्तविक था ? यह सब उसका निरा नाटक था । बडे कौशल से रानी ने अपने अनमनेपन और अरुचि को अनावृत नही होने दिया। अन्यथा उसके कान और ध्यान तो अपने गवाक्ष के बाहर लगे हुए थे । वह राजा की उपस्थिति के कारण बडी बेचैन थी, किन्त करती, तो क्या करती ? वह सर्वथा विवश थी। उसे यह सब कुछ ज्ञात हो गया कि हाथी अपने निश्चित समय पर आया भी
और काफी प्रतीक्षा कर लौट भी आया। निराश कपिला ने निद्रा का अभिनय आरम्भ कर दिया । फलत राजा अपने शयन कक्ष मे चला गया। अब तक हाथी तो कभी का लौट चुका था, किन्तु रानी मिलन-सुख से स्वय को वचित कैसे रख सकती थी। वह स्वय ही पिछली रात्रि में महावत के घर पहुँच गयी ।
महावत भी रानी के अभाव में उस समय अत्यन्त सन्तप्त था। असहनीय वियोगाग्नि मे वह तिल-तिल कर फेंकता जा था। जब उसने रानी को अपने समक्ष खडे देख तो उसकी कामान्धता क्रोधान्धता मे परिणत हो गयी। रानी के प्रति अनेक अश्लील वचनो का उच्चारण करते हुए महावत उसे एक लोहशृखला से पीटने लगा। एक रानी अपनी राजधानी मे इस प्रकार अपमानित हो रही थी, किन्तु कपिला तो प्रेम की उन्मत्तता मे अपनी सारे मान-सम्मान-प्रतिष्ठा आदि को विस्मत कर चकी थी। फिर भी दैहिक पीडा को वह सहन नहीं कर पायी और