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रानी कपिला की कथा | ११५
न अपमान का अनुभव हुआ, न लज्जा का और न ही वैभव से वचित हो जाने का दुख । वह तो निर्लज्जता के साथ प्रसन्न हो रही थी कि उसे अपने प्रियतम के साथ रहने का स्वच्छन्दतापूर्ण अवसर मिल गया है । महावत के लिए तो 'बिल्ली के भाग्य से छीका टूटने' की लोकोक्ति चरितार्थ हो गयी थी। दोनो ने उल्लास के साथ इस राज्य को त्याग दिया और अपने अनिश्चित गन्तव्य की ओर अग्रसर हुए।
प्रसन्न मन-बदन के साथ वे यात्रा करते रहे। दिन भर वे चलते रहते और रात्रि को किसी उपयुक्त स्थल पर विश्राम करते । इस प्रकार अनेक दिन व्यतीत हो गये । एक रात्रि की चर्चा है-कपिला और महावत किसी गांव से दूर बने एक प्राचीन मन्दिर मे विश्राम कर रहे थे। दिन भर की थकान के कारण दोनो को नीद आ गयी थी। सहसा शोरगुल के कारण कपिला की नीद उचट गयी, किन्तु महावत अब भी गाढी नीद मे सो रहा था। कोलाहल तीव्र होता चला जा रहा था और समीप से समीपतर आ रहा था । नीद से उठी कपिला अभी इस नवीन परिस्थिति के विषय मे कुछ अनुमान नही लगा पा रही थी। किसी संकट में न फंस जायें, इस आशका से वह विचलित हो गयी और महावत को जगाने के लिए उसने हाथ आगे बढाया ही था कि एक धमाके से वह चौक गयी। उसने अपना हाथ वापिस खीच लिया। उसने देखा कि कोई भारी गट्ठर आँगन मे गिरा है। वह सावधान हो गयी । ध्यान से देखने पर उसे पता चला कि कोई पुरुष भी उस गट्ठर के समीप खडा है । वह उठी और उसके पास