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११० मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
सर्वत्र शान्ति छा जाती, सभी निद्रामग्न हो जाया करते, तब भी रानी कपिला अपने शयन कक्ष मे उद्विग्नता के साथ चक्रमण करती रहती थी। वह अपने कक्ष के गवाक्ष से बार-बार चचलता के साथ बाहर झाँकती रहती। कभी अपने नेत्रो पर जोर डालकर वह रात्रि के मद्धिम प्रकाश में दूर-दूर तक देख लेने का प्रयत्न करती । तनिक हताश होकर वह फिर कक्ष मे टहलने लगती और फिर बाहर झॉक लेती। उसकी यह आकुलता तब तक चलती रहती जब तक कि महावत का हाथी गवाक्ष के बाहर आकर रुक नही जाता था। महावत ने अपने हाथी को विशेष रूप से प्रशिक्षित कर रखा था। हाथी अपनी सूंड से रानी को गवाक्ष से उठाकर अपनी पीठ पर आसीन कर देता था और महावत तव रानी को अपने घर ले जाता । बेचारा राजा इस सब छद्मलीला से अपरिचित था। रानी और महावत प्रतिरात्रि इस प्रकार परस्पर मिलते थे । भांति-भांति की क्रीडाएँ करते रहते थे । राजा को लम्बे समय तक इन रगरेलियो की सूचना ही प्राप्त नहीं हुई। वह अपने प्रति रानी की एक-निष्ठता का ही विश्वास करता रहा और अपने निर्मल हृदय का अनुराग उस पर लुटाता रहा ।
हे स्वामी । पद्मसेना ने पति को सम्बोधित करते हुए कहा कि प्रत्येक दुष्कर्मी अपने पाप को छिपाना चाहता है, किन्तु कभीन-कभी भण्डाफोड़ होता ही है। रानी कपिला की प्रणयलीला भी इसकी अपवाद नही हो सकती थी। एक बार मध्यरात्रि के उपरान्त भी राजा कपिला के कक्ष मे विश्राम कर रहा था । मधुर
लाप से वह रानी को आनन्दित करने का प्रयत्न कर रहा