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१०४ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
सुखलोलुपता का कुफल भोगना ही था । बेचारा वह असहाय कौआ उड़ता रहा.... उडता रहा .. दूर-दूर तक उड़ता रहा । एक क्षण के लिए भी उसके पखो को विश्राम नही मिला । अन्तत इस प्रकार कव तक वह उडता रह सकता था । वह थक कर चूर हो गया, किन्तु प्राण-रक्षा की लालसा उसे प्रेरित करती रही - वह उडता रहा । आखिरकार वह शिथिल और वेदम हो गया । वुरी तरह हाँफता हुआ वह समुद्र मे गिर पडा और एक मत्स्य ने उसे अपना आहार बना लिया ।
समुद्रश्री को सम्बोधित करते हुए जम्बूकुमार कहने लगे कि तुम भली-भाँति ममझ सकती हो कि इस मूर्ख कौए की इस दुर्दशा के पीछे यही कारण था कि वह प्राप्त सुखो को त्यागने का साहस नही कर सका । सुखोपभोग का लोभ ही उसकी मृत्यु का कारण वना । तुम बंग किसान के प्रसग से मुझे सीख लेने को कहती हो । परन्तु क्या मुझे इस मूर्ख कोए के प्रसग से सचेत होकर अपने भावी जीवन को सशोधित नही करना चाहिए । मेरा परामर्श तो यह है कि सुखो के आकर्षक पहचान लो और उन्हें असार मान कर त्याग दो । फिर तो अनन्त दुखो से तुम्हारा भी सामना नही होगा । तुम लाख कहो, मगर उस कौए की मूर्खता को मैं कैसे दोहरा सकता हूँ । ये सारे उपलब्ध सुख मुखौटे लगाये हुए हैं और मैंने इन मुखौटो मे छिपे दुखो के मुखडे देख लिए हैं । अब मैं इनके जाल में ग्रस्त नही होऊँगा । मुझे तो अनन्त और वास्तविक मुख की साध हैउसी की प्राप्ति मे अब शेष जीवन-यात्रा लगी रहेगी । समुद्रश्री
छलावो को तुम भी
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