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सुख-लोलुप कौए की कथा | १०३
घिर गया और बूंदाबांदी आरम्भ हो गयी । विजलियाँ चमकने लगीं, मेघो की घोर गर्जना होने लगी । मेघ मानो क्रुद्ध हो गये थे और अब मूसलाधार वर्षा होने लगी । पर्वतो से वहकर पानी आने लगा और उसके साथ यह हाथी का शव भी बहने लगे । अब भी कौआ अपने भोजन के स्वाद मे खोया रहा । कभी-कभी वह आस-पास भी दृष्टि डाल देता था । उसे लगने लगा जैसे किसी विशाल जलपोत्त पर वह यात्रा कर रहा है । हाथी का शव पानी के साथ बहते - बहते एक बड़ी नदी मे पहुँच गया जो उसे तेजी से बहा ले गयी । अब भी कोआ सचेत नही हुआ । उसे तो सुख का लोभ ग्रस्त किये हुए था । वह माँस नोचने मे ही लगा रहा । परिस्थितियो के परिवर्तनो से वह उदासीन रहा । यह शव अब नदी के साथ-साथ समुद्र से जो मिला और समुद्र मे वह काफी दूर तक भीतर पहुँच गया । अब तो भूतल से कौआ इतना दूर
• इतना दूर हो गया कि.......। वह मूर्ख अब भी अपने लोभ से विमुख नही हो पा रहा था। हाथी का शव अब तक भारी हो गया था और वह समुद्र के जल मे डूबने लगा । अब तो कौआ तनिक सचेत होने लगा । प्राणो के सकट ने उसे झिझोड़ दिया था । आत्म-रक्षा के लिए जब हाथी के शव से वह उडा और आकाश मे कुछ ऊंचा उठकर आस-पास का दृश्य देखने लगा उमे दूर-दूर तक कोई आश्रय स्थल नही दिखाई दिया । कोई पहाडी, कोई वृक्ष, किनारा कुछ भी दृष्टिगत नही हुआ । जहाँ तक दृष्टि जाती थी, जन-ही-जल था । अव तो उसे बडी चिन्ता होने लगी, किन्तु वह बेचारा करता भी क्या । अब तो उसे अपनी