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रानी कपिला की कथा | १०७
ही भाव रखता हूँ। कहो, तुम क्या कहना चाहती हो ? यदि तुम्हारे कथन मे मुझे औचित्य प्रतीत होगा तो मैं अवश्य उसका ममर्थन करूंगा और अपने आचरण को तदनुरूप ही ढालूंगा । मैं दुराग्रही नही हूँ । कुमार के कयन और उसकी शैली का पद्मसेना पर अद्भुत प्रभाव हुआ। वह स्वत. ही अतिशय नम्र हो गयी और कोमलता के साथ वह अपना मन्तव्य प्रकट करने लगी कि हे प्रिय स्वामी । मैं जीवन और जगत् से एक विशेष तत्व समझ पायी हूँ और चाहती हूँ कि आप भी मेरे इस अनुभव से लाभ उठाएं। मेरा अनुभव यह है कि महत्वाकाक्षाएँ मिथ्या है और लालसाओ की दौड भी व्यर्थ है । ये मनुष्य को व्यग्र, अशान्त और दुखी ही बनाती हैं। लालसाओ पर नियन्त्रण न करने वाला व्यक्ति तीव्र असन्तोष का आखेट होकर पछताता रह जाता है । आपके मन मे भी जो लालसा है वह एक दिन घोर दुख का कारण अवश्य बनेगी । अतः आपसे मेरा अनुरोध है कि वर्तमान परिस्थिति से ही सन्तोष अनुभव करना सीख लीजिए । आप क्यो काल्पनिक स्थिति-प्राप्ति की लालसा को पाल रहे हैं ? आपकी मनोवत्ति देखकर मुझे रानी कपिला की दुर्दशा का स्मरण आ रहा है जिसने लिप्साओ के आकर्षण मे पडकर अपना सर्वनाश ही कर दिया था। वह भी यह सोचती थी कि जो उपलब्ध है, वह पुराना है, नीरस है । वह सदा नव-नवीन की लालसा से ओतप्रोत रहती थी । यही उसकी दुर्दशा का कारण था ।
जम्बकमार ने अपनी जिज्ञासा व्यक्त की कि पद्मसेना यह कपिला रानी की क्या कथा है ? कौन थी वह और कौन-मी उसकी